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भगवान शिव

रुद्र संहिता(अध्याय६)

ब्रह्मा जी ने कहा-देवशिरोमणे नारद ! तुम सदा जगत के उपकार में ही लगे रहते हो।
तुमने लोगों के हित कामना से बहुत उत्तम बात पूछी है
जिसके सुनने से सम्पूर्ण लोकों के समस्त पापों का नाश हो जाया करता है,उस अनामय शिव तत्व का मैं तुमसे वर्णन करता हूँ।शिव तत्व का स्वरुप बडा़ ही उत्कृष्ट और अद्भुत है।जिस समय समस्त चराचर जगत नष्ट हो गया था,सर्वत्र केबल अंधकार ही अंधकार था। न सूर्य था और न ही चंद्रमा।अन्य ग्रहों और नक्षत्रों का भी पता नहीं था।न दिन होता था और न ही रात ; अग्नि,पृथ्वी,वायु और जल की भी सत्ता नहीं थी।प्रधान तत्व से रहित केबल सूना आकाशमात्र ही था,दूसरे किसी तेज की उपलब्धि नहीं होती थी।
अदृष्ट आदि का भी अस्तित्व नहीं था।शब्द और स्पर्श भी साथ छोड़ चुके थे। गन्ध और रुप की भी अभिव्यक्ति नहीं होती थी।रस का भी अभाव हो गया था।दिशाओं का भी भान नहीं होता था।इस प्रकार सब ओर निरन्तर घोर अंधकार फैला हुआ था।उस समय 'तत्ससदब्रह्म' इस श्रुति में जो सत् सुना जाता है,एकमात्र वही शेष था।
जब वह,यह ,ऐसा,जो  इत्यादि रूप से निर्दिष्ट होने वाला भावाभावात्मक जगत नहीं था,उस समय एकमात्र वह सत् ही शेष था जिसे योगीजन अपने ह्रदयाकाश के भीतर निरन्तर देखते हैं।वह मन का विषय नहीं है।वाणी की भी वहां तक कभी भी पहुंच नहीं होती है।
वह नाम तथा रुप रंग से भी शून्य है।वह न स्थूल है और न कृश,न ह्रस है,न लघु और न दीर्घ और न गुरु।उसमें न कभी वृद्धि होती है और न ही ह्रास।
श्रुति भी उसके विषय में चकितभाव से "है" केबल इतना ही कहती है अर्थात उसकी सत्तामात्र का ही निरूपण करती है,उसका कोई बिशेष विवरण देने में असमर्थ हो जाती है।

यह सत्यस्वरुप ,अनन्त,ज्ञानस्वरुप,परमानंदमय, परमज्योतिस्वरुप,अप्रमेय,आधाररहित,निर्विकार,निराकार,निर्गुण,सर्वव्यापी, योगीगम्य,सबका एकमात्र कारण,निर्विकल्प,आरम्भरहित मायाशून्य,उपद्रव रहित,अद्वितीय,अनादि,अनन्त,संकोच -विकास से शून्य तथा चिन्मय है।

जिस परब्रह्म के विषय में ज्ञान  और अज्ञान से पूर्ण उक्तियों द्वारा इस प्रकार विकल्प किऐ जाते हैं।
उसने कुछ काल के बाद(सृष्टि समय आने पर)
द्वितीय  की इच्छा प्रकट की-उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीलाशक्ति से  अपने लिऐ मूर्ति की कल्पना की।वह मूर्ति सम्पर्ण ऐशवर्य गुणों से सपन्न ,,सर्वज्ञानमयी ,शुभस्वरुपा,सर्वव्यापिनी,सर्वमयी,सर्वकारण,सर्वदर्शिनी,सबकी एकमात्र वंदनीय,सबकुछ देने वाली,और सम्पूर्ण संस्कृतियों का केंद्र थी।
उस शुद्धरुपिणी मूर्ति की कल्पना करके वह अद्वितीय,
 अनादि ,अनन्त,सर्वप्रकाशक,चिन्मय,सर्वव्यापी,और अविनाशी परब्रह्म अंतर्हित हो गया।जो मूर्तिरहित परब्रह्म है उसी की मूर्ति भगवान सदाशिव हैं।

अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान उन्ही को ईश्वर कहते हैं।
उस समय एकाकी रहकर उस परमेश्वर ने अपने विग्रह से  स्वयं ही एक स्वरुपभूता शक्ति की सृष्टि की।जो उनके श्रीअंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी,उस पराशक्ति को प्रधान, प्रकृति,गुणवती, माया, बुद्धि तत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है।
 वह शक्ति अम्बिका कही गयी है।उसी को प्रकृति,माहेश्वरी,त्रिदेव जननी, नित्या और मूल कारण भी कहते हैं।सदाशिव  द्वारा प्रकट की शक्ति की आठ भुजाऐं हैं।उस शुमलक्षणा देवी के मुख की शोभा विचित्र है।वह देवी सबकी जननी है और परम तेजोमय है।।

वे जो सदाशिव हैं उन्हें परमपुरूष,ईश्वर,शिव,शम्भु, और महेश्वर कहते हैं।वे अपने मस्तिष्क पर आकाशगंगा को धारण करते हैं।उनके भालदेश में चंद्र
शोभा पाते हैं,पांचमुख और प्रत्येक मुख में तीन-२नेत्र हैं।
उनका चित सदा खुश रहता है,वे दशभुजाओं से युक्त और त्रिशूलधारी हैं।
वह कपूर के समान श्वेत-गौर हैं।वे अपने सारे अंगों में भस्म रमाऐ रहते हैं।उन कालरुपी ब्रह्म ने एक ही समय में शक्ति के साथ शिवलोक नामक धाम का निर्माण किया।उस उत्तम क्षेत्र को ही काशी कहा जाता है।वह मोक्ष का स्थान हैं और सबसे ऊपर विराजमान है।वे शक्ति और शिव सदा ही उस लोक में निवास करते हैं।नारद !शिव और शिवा ने प्रलयकाल में भी उत्तम शिव लोक का कभी भी त्याग नहीं किया।
इसी से विद्वान उस उत्तम स्थान को अविमुक्त लोक या आनन्दवन भी कहते हैं।

देवर्षे!उस आनन्दवन में रमण करते हुऐ शिवा और शिव के मन में यह इच्छा हुई की किसी दूसरे पुरुष की भी सृष्टि की जाऐ जिस पर सृष्टि संचालन का दायित्व
सौंपकर हम दोनों काशी में इच्छा अनुसार विचरें।
इसके बाद उन्होंने विष्णुदेव की सृष्टि की तथा उन्हें
श्वासमार्ग से वेदों का ज्ञान प्रदान किया ।फिर शिव तथा शिवा अंतर्ध्यान हो गये।
गवान विष्णु ने दीर्घ काल तक  कठोर तपया की।तपस्या के परिश्रम से युक्त भगवान विष्णु के शरीर से नाना प्रकार की जलधाराऐं निकली।उस जल से सारा सूना आकाश व्याप्त हो गया।वह ब्रह्मरुप जल अपने स्पर्शमात्र से सब पापों को नष्ट करने वाला साबित हुआ।उस समय थके हुऐ श्रीविष्णु देव ने उस जल में शयन किया।वे दीर्घकाल तक बडी़ प्रसन्नता के साथ उसमें रहे।नार अर्थात जल में शयन करने के कारण उनका नारायण नाम प्रसिद्ध हुआ।उसके बाद यथासमय विष्णु जी से सारे तत्व प्रकट हुऐ।

नारद! प्रकृति से महत्व तत्व प्रकट हुआ और महत्व तत्व से तीनों गुण।इन तीनों गुणो के भेद से त्रिविध अहंकार की उत्पत्ति हुई।अहंकार से पांच तंमात्राओं की सृष्टि हुई और इन तन्मात्राओं से पांच भूत प्रकट हुऐ।ज्ञान और कर्म इद्रियों  भी प्रकट हुई।इस प्रकार मैंने तत्वों की संख्या बताई। पुरष को छोड़कर शेष सारे तत्व प्रकृति से उत्पन्न हैं इसलिऐ सबके सब जड़ हैं।तत्वों की संख्या २४है। इस प्रकार तत्वों को ग्रहण कर श्रीविष्णु देव उस ब्रह्म रुप जल में सो गये।
अध्याय ७-भगवान विष्णु के नाभिकमल से शिव इच्छा-वश ब्रह्मा जी का प्रकट होना,कमलनाल के उद्गम का पता लगाने में असमर्थ ब्रह्मा का तप करना तथा तप से खुश होकर विष्णु का उन्हें दर्शन देना।विवादग्रस्त विष्णु- ब्रह्मा के बीच में अग्निस्तम्भ का प्रकट होना और उसके ओर-छोर का पता न लगाकर उन दोनों का उसे  प्रणाम करना।
अध्याय ९- भगवान विष्णुद्वारा की हुई अपनी स्तुति सुनकर भगवान शिव उमा के साथ प्रकट हुऐ।उन शिव- शिवा ने उन दोनों को
 ज्ञान दिया।
यही भगवान शिव स्वयं ही रुद्र के रुप में ब्रह्मा जी से प्रकट हुऐ और  कैलाश पर्वत पर जा विराजे।


शिवपुराण का सारांश यही है कि शिव गुणातीत
हैं और अपनी शक्ति (उमा देवी)के साथ  शिवलोक में निवास करते हैं। स्वयं शिव  रुद्ररुप से कैलाश पर स्थित हुऐ ।  रुद्रप्रभु भगवान शिव जी के पूर्णरुप हैं और मां पार्वती शिवा का पूर्ण अवतार हैं।स्वयं गुणातीत शिव ने कहा-"
मेरे ह्रदय में विष्णु हैं और विष्णु जी के ह्रदय में मैं हूँ।"
अर्थात सारा जगत शिव रुप है । परमेश्वर शिव ही व्रह्मा ,विष्णु और कैलाश निवासी शंकर देव हैं।


विस्तार से अध्ययन करना हो तो हमें मूल शिवपुराण को ही देखना चाहिऐ। भगवान रुद्र क्षणिक अभिव्यक्ति हैं और सदाशिव सनातन।अंत में सारे देवता परमेश्वर में लय को प्राप्त होगें।    पराप्रकृति शिवा देवी और गुणातीत शिव जो आनन्दवन के रहवासी  हैं,वही मूल ईश्वर हैं (शिवपुराण अनुसार)


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