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ॐ 'कृष' शब्द सत्ता का वाचक है और ' न ' शब्द आनंद का।इन दोनों की जहां एकता है,वह सच्चिदानंद स्वरूप परब्रह्म ही श्री कृष्ण इस नाम से प्रतिपादित होता है। ॐ अनायास ही सब कुछ कर सकने वाले सच्चिदानंद स्वरूप श्री कृष्ण को, जो वेदांत द्वारा जानने योग्य, सब की बुद्धि के साक्षी तथा संपूर्ण जगत के गुरु हैं, सादर नमस्कार है।
हरि, ॐ। एक समय की बात है मुनियों ने सुप्रसिद्ध श्री ब्रह्मा जी से पूछा-कौन सबसे श्रेष्ठ देवता है तथा किससे मृत्यु भी डरती है ?किसके तत्व को जान लेने से सब कुछ पूर्णत ज्ञात हो जाता है। किसके द्वारा प्रेरित होकर यह विश्व आगमन की चक्र में पड़ा रहता है?
इन प्रश्नों के उत्तर में श्री ब्रह्मा जी इस प्रकार बोले-निश्चय ही श्री कृष्ण सबसे श्रेष्ठ देवता हैं और गोविंद से मृत्यु भी डरती है। गोपीजनबल्लभ के तत्व को भली-भांति जान लेने से यह सबकुछ पूर्णता ज्ञात हो जाता है। स्वाहा इस माया शक्ति से प्रेरित होकर संपूर्ण विश्व आगमन के चक्कर में पड़ा रहता है।
तब मुनियों ने पूछा- श्री कृष्ण कौन है, गोविंद कौन हैं और गोपी जन-वल्लभ और स्वाहा कौन हैं ?
यह सुनकर ब्रह्मा जी ने उन मुनियों से कहा-पापों का आकर्षण करने वाले कृष्ण ,गाय ,भूमि तथा वेद वाणी के ज्ञाता रूप से प्रसिद्ध सर्वत्र गोविंद,गोपीजन की आविद्या-कला के निवारक
तथा इनकी माया शक्ति स्वाहा यह सब कुछ वह परब्रह्म ही है।
इस प्रकार श्री कृष्ण नाम से प्रसिद्ध है उस परब्रह्म का जो ध्यान करता है ,जाप आदि के द्वारा उनके नाम अमृत का जो रसास्वादन करता है तथा उनके भजन में लगा रहता है ।वह अमृतस्वरूप, अमृत स्वरूप हो जाता है।
तब उन मुनियों ने पुनः प्रश्न किया श्री कृष्ण का ध्यान करने योग्य रूप कैसा है? उनके नाम अमृत का रसास्वादन कैसे होता है? तथा उनका भजन किस प्रकार किया जाता है ?यह सब हम जानना चाहते हैं, अतः हमें बताइए।
तब ब्रह्माजी इस प्रकार बोले की भगवान श्री कृष्ण का रूप ध्यान करने के लिए इस प्रकार से है-ग्वाल बाल का सा उनका वेष है नूतन जलधर के समान श्याम वर्ण है,किशोर अवस्था है
तथा वे दिव्य कल्पवृक्ष के नीचे विराज रहे हैं।
भगवान के नेत्र विकसित श्वेत कमल के समान परम सुंदर हैं, उनके श्री अंगों की कांति मेघ के समान श्याम है, वे विद्युत के समान तेजोमय पीतांबर धारण किए हुए हैं। उनकी दो भुजाएं हैं ज्ञान की मुद्रा में स्थित है ,उनके गले में पैरों तक लंबी वनमाला शोभा पा रही है।वे ईश्वर हैं, ब्रह्मा आदि देवताओं पर शासन करने वाले हैं। गोपों तथा गोप सुंदरियों द्वारा चारों ओर से घिरे हुए हैं। कल्प वृक्ष के नीचे दिव्य सिंहासन ( कालिंदी तट) पर स्थित हैं, उनका श्री विग्रह दिव्य आभूषणों से सुशोभित है। इस प्रकार भगवान का चिंतन करने वाला संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।
अब उनके नाम अमृत का रसास्वादन तथा मंत्र जाप का प्रकार बल आते हैं-जलवाचक 'क' ,भू बीज ' ल ', ई तथा चंद्रमा के समान आकार धारण करने वाला अनुस्वार- इन सबका समुदाय है- 'क्लीं ' यही काम बीज है। इसको आदि में रखकर कृष्णाय पद का उच्चारण करें।
क्लीं कृष्णाय' संपूर्ण मंत्र का एक पद है। ' गोविंदाय ' यह दूसरा पद है, 'गोपीजन' यह तीसरा पद है, वल्लभाय यह चौथा है , तथा 'स्वाहा' यह पांचवा पद है। 5 पदों का
‘क्लीं कृष्णाय गोविंदाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा’ यह मंत्र पंचपदी कहलाता है। आकाश, पृथ्वी ,सूर्य ,चंद्रमा और अग्नि इन सबका प्रकाशक यह मंत्र 5 अंगों से युक्त है।।
इस प्रकार इस मंत्र का जाप करने वाला भगवान श्री कृष्ण के धाम को प्राप्त होता है।।
एकोवशी सर्वगः कृष्ण ईड्य
एकोऽपि सन्बहुधा योविभाति ।
तं पीठं येऽनुभजन्ति धीरा-
स्तेषां सिद्धिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥
नित्योनित्यानां चेतनश्चेतनाना-
मेकोबहूनां योविदधाति कामान् ।
तं पीठगं येऽनुभजन्ति धीरा-
स्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ ४॥
एतद्विष्णोः परमं पदं ये
नित्योद्युक्तास्तं यजन्ति न कामात् ।
तेषामसौगोपरूपःप्रयत्ना-
त्प्रकाशयेदात्मपदं तदेव ॥ ५॥
योब्रह्माणं विदधाति पूर्वं
योविद्यां तस्मैगोपयति स्म कृष्णः ।
तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं
मुमुक्षुः शरणं व्रजेत् ॥ ६
ओङ्कारेणान्तरितं येजपन्ति
गोविन्दस्य पञ्चपदं मनुम् ।
तेषामसौदर्शयेदात्मरूपं
तस्मान्मुमुक्षुरभ्यसेन्नित्यशान्तिः ॥ ७॥
एतस्मा एव पञ्चपदादभूव-
न्गोविन्दस्य मनवोमानवानाम् ।
दशार्णाद्यास्तेऽपि संक्रन्दनाद्यै-
रभ्यस्यन्तेभूतिकामैर्यथावत् ॥ ८॥
एकमात्र सबको बश में रखने वाले सर्वव्यापी श्री कृष्णा सर्वथा स्तवन करने योग्य है। एक होते हुए भी अनेक रूपों में प्रकाशित हो रहे हैं। जो धीर भक्तजन पूर्व उक्त आसन पर विराजमान श्री भगवान का पूजन करते हैं उन्हीं को साश्वात सुख प्राप्त होता है, दूसरों को नहीं।
जो नित्यों के भी नित्य हैं,चेतनों के भी परम चेतन हैं।
और वह एक ही सबकी कामनाऐं पूर्ण करते हैं,उन भगवान कृष्ण को पूर्वोक्त पीठ में स्थापित करके जो धीर पुरुष निरन्तर उनका पूजन करते हैं ,उनको ही सनातन सिद्धि प्राप्त होती है,दूसरों को नहीं।
जो नित्य उत्साहपूर्वक उद्दत रहकर श्री विष्णु के परमपदस्वरूप
इस मंत्र कि विधिपूर्वक पूजा करते हैं,भगवान को छोड़कर किसी अन्य की कामना नहीं करता।ऐसे भक्त के लिए श्री गोपाल अपने स्वरूप एवम् परम धाम को शीघ्र प्रकाशित कर देते हैं।जो श्री कृष्ण सृष्टि के प्रारंभ में श्री ब्रह्मा जी को प्रकट करते हैं तथा निश्चय ही जो उनको वेद विद्या का उपदेश करके उनसे गान करवाते हैं , समस्त जीवो की बुद्धि को ज्ञान या प्रकाश देने वाले उन परमेश्वर की शरण में अवश्य जाएं। इस मंत्र से ही गोलोक धाम की प्राप्ति होती है।
5 पदों का अष्टादश अक्षर मंत्र-
‘क्लीं कृष्णाय गोविंदाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा’ -
इस मंत्र के पहले पद(क्लीं) से पृथ्वी, दूसरे पद(कृष्णाय) से जल, तीसरे पद(गोविंदाय) से तेज ,चौथे पद(गोपीजनवल्लभाय) से वायु और पांचवे पद (स्वाहा)से आकाश की उत्पत्ति हुई है।
गोलोक धाम आकाश में सूर्य की भांति है, वह पर व्योम में सब ओर व्याप्त तथा प्रकाशमान है। उपरोक्त मंत्र के जाप प्रभाव से राजर्षि चंद्र ध्वज ने गोलोकधाम प्राप्त किया था।।
इस उपनिषद के शेष भाग में श्री कृष्ण चंद्र परमेश्वर की स्तुति की गई है इस उपनिषद में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वह सच्चिदानंद परमेश्वर गोविंद ,कृष्ण नाम से प्रसिद्ध है तथा उसका निवास गोलोक धाम है।
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