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कबीर साहब के बारे में कुछ लिखने से पहले मैं उन्हें प्रणाम करता हूं।
जन्म - काशी(१४ -१५ वीं शताब्दी ),मृत्यु - मगहर
कबीर साहब का जन्म स्थान कोई काशी तो कोई मगहर बताता है।अर्थात इस बारे में विद्वान अभी एकमत नहीं हो पाए हैं।
रामानंद एक फेमस गुरु हो गए हैं,जो श्री हरि की भक्ति किया करते थे।उन्हीं रामानंद के पास एक विधवा ब्राह्मणी रहा करती थी जो गुरु रामानंद की बड़े परिश्रम से सेवा करती थी
एक बार संत रामानंद श्री हरि के ध्यान में लीन थे ,तब उस विधवा नारी ने आकर उन्हें प्रणाम किया,सो गुरु के मुख से अकस्मात ' पुत्रवती भव' ऐसा निकल गया।
गुरु की बानी व्यर्थ नहीं होती ,हरि माया से वह गर्भवती हुईऔर उसने समय आने पर एक तेजोमय बालक को जन्म दिया किन्तु उसने लोकलाज़ से डरकर उस बालक को फेंक दिया ,वहां से गुजरते हुए नीमा एवम् नीरू उसे उठाकर घर ले आए और उस वालक का पालन पोषण किया।
जाति -
कबीर एक जुलाहे थे और उन्होंने अपनी जाति को कभी छिपाया नहीं।
जैसे - जाति जुलाहा नाम कबीरा, बनि -२ फिरो उदासी।
एक अन्य स्थान पर कबीर साहब कहते हैं कि -
तू ब्राहमण, मैं जुलाहा ।
संत कबीर पढ़े- लिखे नहीं थे जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है
मसि कागद छुवो नहीं,कलम गही नहि हाथ।।
भक्ति -
वह निर्गुण राम के उपासक थे,उनके यह राम दशरथ के पुत्र राम नहीं हैं।।
'कहै कबीर कोउ पार पावै नहीं राम को नाम है अकह कहानी '
उन्होंने राम में भेद बताया है जैसे -
चार राम हैं जगत में ,तीन राम व्यवहार ।
चौथ राम सो सार है, ताका करो विचार ॥
एक राम दसरथ घर डोलै, एक राम घट-घट में बोलै ।
एक राम का सकल पसारा, एक राम हैं सबसे न्यारा ॥
और भी कबीर बीजक में
जैसे
संतो आवै जायसो माया।
है प्रतिपाल काल नहि वाके ना कहूं गया ना आया।।
क्या मकसूद मच्छ कच्छ होना शंखासुर न संहरा।
अहै दयालु द्रोह नहि वाके कहहू कौन को मारा।।
वे कर्ता ना वराह कहावे धरनि धरई न भारा।
ई सब काम साहब के नाही झूठ कहै संसारा।।
खम्ब फारि जो बाहर होई ताहि पतिज सब कोई।
हिरणाकुश नख उदार बिदारे सो नहीं करता हुई।।
वावन रूप न बली को यांचे जो यांचे सो माया।
बिना विवेक सकल जग जहड़ माया जग भरमाया।।
परशुराम क्षत्रि नहीं मारा ई छल माया कींहा।
सतगुरु भक्ति भेद नहीं जानै जीव एमिथ्या दीन्हा।।
सिरजनहार ना ब्याही सीता जल पाषाण नहि वांधा।
वे रघुनाथ एककै सुमिरे जो सुमिरै सो अंधा।।
गोपी ग्वाल गोकुल नहीं आए करते कंस न मारा।
हे मेहरबान सबन को साहब नहि जीता नहि हारा।।
वे कर्ता नहि बौद्ध कहावै नहि असुर को मारा।
ज्ञान हीन कर्ता कै भरमे माया जग संहारा।।
वे कर्ता नहि भये कलंकी नहीं कलगहि मारा।
ई छल बल माया कीन्हा यतिन सतिन सब टारा।।
दश अवतार ईशवरी माया कर्ता कै जिन पूजा।
क़है कबीर सुनो हौ संतौ उपजै खपै सो दूजा।।
नोट - यहां कबीर साहब ने स्पष्ट कर दिया है कि यह श्रीमान विष्णु देव अर्थात नारायण को तथा उनके दस अवतारों को ईश्वर मानकर न पूजो कारण की जिससे ऐसे अनेकों ईश्वर उत्पन्न होते और जिसमें लीन होते रहते हैं,वह परम ईश्वर तो कोई और ही है।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥
हरि मोर पीव मै राम की बहुरिया।राम मोर बड़ा मै तन की लहुरिया।
अर्थात कबीर साहब के प्रियतम श्री हरि हैं और वह उनकी बहुरिया।
क़है कबीर सुनो हो संतो जिन यह सृष्टि उपाई।
छाडी पसार राम भजु बौरेे भवसागर कठिनाई।।
बांधि आकाश पताल पठावै शेष स्वर्ग परराजै।
कहै कबीर राम है राजा जो कुछ करै सो छा।।
वह राम की भक्ति में अर्थात उनके प्रेम में इतने तन्मय है की वह स्वयं को उनका कुत्ता कहने में भी नहीं झिझकते ।
उन्हीं के शब्दों में -
कबिरा कुत्ता राम का, मोतिया मेरा नाम। गले राम की जेवरी, जित खैंचे तित जाऊँ।
वे जीवों को समझाते हुए कहते हैं कि -
राम गुन न्यारो न्यारो न्यारो।
अवुझा लोग कहांलौं बूझ बूझनहर विचारो।।
केते रामचंद्र तपसीसौ जिन यह जग विटमाया।
केते कन्ह भए मुरलीधर तीन भी अंत न पाया।।
मत्स्य कच्छ वाराह स्वरूपी वामन नाम धराया ।
केते बुद्ध भये निकलंकी तीन भी अंत न पाया।।
केतक सिद्ध साधक सन्यासी जिन वनवास बसाया।
केते मुनि जन गोरख कहिए तीन भी अंत न पाया।।
जाकी गति ब्रह्म नहीं पाई शिव संकादिक हारे।
ताके गुण नर कैसेपैहौ क़है कबीर पुकारे।।
यहां कबीर साहब कहते हैं कि जिन परमेश्वर की गति ब्रह्मा ,विष्णु और महेश आदि नहीं जानते ,सो हे मानव तुम कैसे उसे पाओगे?वे और भी कहते हैं की श्री राम के गुण सबसे अलग है।
कबीर साहब का लोगों से कहना है कि ' राम नाम जपो रेे भाई '
कबीर के राम निर्गुण सगुण के परे हैं,वास्तव में उनके प्रभु अवतारी पुरुष नहीं है,परमेश्वर को उन्होंने नाम ,रूप,गुण,काल आदि की सीमाओं से परे माना है।वह अपने परमेश्वर की वंदना केशव,हरि ,माधव,राम आदि नाम ले - लेकर करते हैं।
वह उन परमेश्वर को अपना प्रियतम और खुद को उनकी नारी बताते हैं,तो कभी उन्हें अपना स्वामी तथा खुद को उनका दास बताते हैं और वह सारे जीवों को राम नाम रूपी धन का संग्रह करने को कहते हैं,जो अंत समय में काम आता है।।
"विस्तार से जानने हेतु एक बार कबीर साहब का बीजक जरूर पढ़ें।''
संत जी का मानना है कि परमेश्वर राम सारे संसार में व्याप्त हैं अर्थात वह घट -२ में वास करते हैं। देखिए -
कस्तुरी कुंडल बसै,मृग ढूढ़ै वन माहि
ऐसे घट घट राम हैं,दुनिया देखे नाहि।।
अर्थात कस्तूरी मृग की नाभि में कस्तूरी नामक पदार्थ पाया जाता है ,परन्तु इस बात से वह अवगत नहीं है एवम् उसे जंगल में खोजता है।उसी तरह परमेश्वर का मनुष्य के ह्रदय में वास है ,किन्तु वह उसे बाहर खोजता फिरता है।
साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय
ज्यों मेहंदी के पात में, लाली लखी न जाय।।
अर्थात
जिस प्रकार मेहंदी के पत्ते में लाल रंग नहीं दिखता ,उसी तरह परमेश्वर का वास घट - घट में है,परंतु वह दिखाई नहीं देता।
माया के संदर्भ में -
कबीर माया पापिनी, हरि सो करै हराम
मुख कदियाली, कुबुधि की, कहा ना देयी राम।
कबीर कहते है की माया पापिनी है। यह हमें परमात्मा से दूर कर देती है।
यक मुंह को भ्रष्ट कर के राम का नाम नहीं कहने देती है।
माया जुगाबै कौन गुन, अंत ना आबै काज
सो राम नाम जोगबहु, भये परमारथ साज।
माया जमा करने से कोई लाभ नहीं। इससे अंत समय में कोई काम नहीं होता है।
केवल राम नाम का संग्रह करो तो तुम्हारी मुक्ति सज संवर जायेगी।
आइए अब हम कबीर साहब ने गुरुदेव कैसे किए,इस रहस्य को समझते हैं
एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगा स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में-
हम कासी में प्रकट भये हैं,
रामानन्द चेताये।
गुरु को कबीर साहब ने ईश्वर से बड़ा स्थान दिया कारण की गुरु ही भगवान से मिलाता है।
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरू आपनो, गोविंद दियो बताय।।
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