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शनि भगवान के शीश पर स्वर्ण मुकुट, गले में माला तथा शरीर पर नीले रंग का वस्त्र सुशोभित है।
शनिदेव कौन थे?
शनिदेव की दृष्टि शुभ क्यों नहीं है ?
वे भगवान सूर्य और छाया के पुत्र हैं। हाथों में क्रमसा धनुष ,बान, त्रिशूल और वरमुद्रा धारण करते हैं।उनका विग्रह इंद्रनीलमणि के समान है।
जय सूर्यपुत्र शनिदेव महाराज की।
अब हम मूल प्रश्न पर आते हैं की आखिर शनि देव की दृष्टि शुभ क्यों नहीं है ?
एक समय की बात है देवी शिवा ने पुन्यक ब्रत का अनुष्ठान किया ,इस व्रत के फलस्वरूप स्वयं परिपूर्णतम परमेश्वर श्रीकृष्ण बालक रूप से शिव - शिवा को पुत्र रूप में प्राप्त हुये। उन परमेश्वर को पुत्र रूप में पाकर उन दोनों की हर्ष का पारावार नहीं था अपने पुत्र की मंगल कामना से ब्राह्मणों को भिक्षुओं को तरह-तरह की भेंट प्रदान की अर्थात वस्तुएं दान की शिवा के पिता ने भी ब्राह्मणों को दान दिया इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, विष्णु आदि देवों ने भी गणेश की मंगल कामना से दान दिया।
(दान के रूप में स्वर्ण ,हीरे मोती ,माणिक्य आदि ब्राह्मणों को दिए)
इसके बाद हर्षित होकर श्री विष्णु ने दुंदुभी बजवाई नाच गान करवाया मांगलिक बाजे बजने लगे एवं चारों ओर खुशी का माहौल व्याप्त हो गया।
सभी देवी देवता बैठे थे,अब शनिदेव पार्वती पुत्र के दर्शन के लिए आए। उन्होंने सबसे पहले विष्णु ब्रह्मा सूर्य आदि को नमस्कार किया तथा इसके बाद वे उनकी आज्ञा लेकर अंदर गए वह मन ही मन श्री कृष्ण का चिंतन मनन करते जाते थे।
शनिदेव ने सिर झुकाकर माता पार्वती को नमस्कार किया एवं मां पार्वती ने भी उन्हें शुभ आशीर्वाद प्रदान किया।
शनिदेव का सिर झुका देखकर माता पार्वती ने शनि से इसका कारण पूछा।
शनिदेव ने कहा - देवी!कर्म शुभ हो या अशुभ उसका फल मिलता ही है। कर्म से ही प्राणी रोगी, कर्म से ही सुखी ,कर्म से ही नरक तथा कर्म से ही उसे वैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है।देवी ! एक समय की बात है यद्यपि माता के सामने ऐसे प्रसंग नहीं कहे जाते तो भी माता सुनिए!
मैं बचपन से ही श्री हरी कृष्ण का भक्त था,उन्हीं परमेश्वर में मेरा चित् लगा रहता था।पिताजी ने चित्ररथ कि कन्या से मेरा विवाह करना दिया।वह कन्या परम साध्वी,तेजवाली तथा पतिव्रता थी।
एक बार ऋतु स्नान करके वह पुत्र कामना लिए मेरे पास आई किंतू उस समय मेरा मन भगवान में लगा था ,सो मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया,इसने अपना ऋतुकाल निस्फल जानकर मुझे श्राप दे दिया कि जिस किसी को भी तुम देखोगे,वह नष्ट हो जाएगा।जब मै ध्यान से हटा तो मैंने उस देवी को संतुष्ट किया परंतु वह उस श्राप को हटा नहीं सकती थी।
तभी से माते! में किसी पर दृष्टि नहीं डालता।
यह सुनकर देवी दुर्गा हंसने लगी।देवी ने कहा- सारा संसार परमेश्वर की आज्ञा के वशीभूत है।जो होना तय है,उसे कौन रोक सकता है? तुम मुझे ओर मेरे बालक को अवश्य देखो।
शनिदेव ने ज्यों है उस बालक पर दृष्टि डाली यूं ही बालक का सिर धड़ से अलग हो गया और गोलोक में श्री कृष्ण में हो लय हो गया,इसके बाद तो वहां सभी लोग दुख के मेरे रोने लगे।वहां ऐसा वातावरण हो गया कि सबके चेहरे मलिन पड़ गए।
यह सब देखकर श्री हरि गरुड पर सवार होकर उत्तर दिशा में गए वहां पुष्प भद्रा नदी के तट पर एक गज सो रहा था,उसके साथ ही उसका परिवार भी था।
श्री हरि ने जैसे ही हाथी का सिर धड़ से अलग किया तो हथनी की नींद खुल गई उसने श्री हरि की स्तुति की तब भगवान ने उसके पति को जीवनदान दिया और वह उस धड को लेकर कैलाश पर्वत की ओर चले गए वहां पहुंचकर उन्होंने खेले खेल में उस बालक को जीवित कर दिया, अब यह बालक गजानन हो गए थे।
भगवान श्री हरि ने माता पार्वती को श्री कृष्ण तत्व का ज्ञान दिया बालक के जीवित होने पर सारे देवी -देवता एवं शिव पार्वती परम सुखी हो गए सभी देवी -देवताओं ने बालक को तरह-तरह के आशीर्वाद दिए।तथा उन्हें देवताओं से प्रथम पूज्य घोषित किया।
यहां श्री गणेश पूर्ण ब्रह्म श्री कृष्ण के अंश हैं,यह स्पष्ट कहा गया है कारण की वह कभी वृंदावन का त्याग नहीं करते।।
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