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संत कबीर ने मोक्ष मार्ग के कुल दस मुकाम बताए

 संत कबीर ने सतलोक के कुल 9 मुकाम या पड़ाव बताएं हैं।।अर्थात जब कोई पवित्र आत्मा मोक्ष या सतलोक को जाती है तो उसे कहां कहां से होकर जाना पड़ता है ,इसका वर्णन झूलना छंद में कबीर साहब ने किया है।

परमेश्वर श्री हरि सतलोक में अपने मूल रूप से विराजते हैं ।

जैसा कि पद्म पुराण ,वेद सार आदि में स्पष्ट बताया गया है कि श्री हरि का यह लोक विरजा नदी के परे पारे वैकुंठ के मध्य स्थित है।

संत कबीर  का रेखता झूलना छंद :-

चला जब लोक को शोक सब त्यागिया हंस को रूप सतगुरु बनाई। भृंगज्योकीट को पलटि भृंगैकिया आप समरंग दे लैउड़ाई।छोड़ि नासूत मलकूत को पहुंचिया विष्णु की ठाकुरी दीख जाई।इन्द्र कुबेर जहां रंभ को नृत्य है देव तैंतीस कोटिक रहाई।।01


छोडि वैकुंठ को हंस आगे चला शून्य में ज्योति  जगमग जगाई।ज्योति प्रकाश में निरखि निस्तत्व को  आप  निर्भय हुआ भय मिटाई।अलख निर्गुण जेहि वेद स्तुति करै तीनहू देवको है पिताई।भगवान तिनके परे श्वेत मूर्ति धरे भाग को आन तिनको रहाई।।02

चार मुकाम पर खंड सोरह  कहें अंड को छोर है अंते राहाई।अंड परे स्थान आचिंत को  निरखिया हंस जब उहां जाई।सहस औे द्वादश रूह हैं संग में करत कल्लोल अनहद बजाई।तासुके बदन की कौन महिमा कहों  भास्ती देह अति नूर छाई।।03

महल कंचन बने माणिकता में जड़े बेठतहा कलश अखंड छाजै।आचिंत के परे स्थान सोहंग का हंस छत्तीसबा  विराजै। नूर का महल  ओ नूरकभुभ्य तहै आनंद सो द्वंद्व भाजै। करत काल्लोल  बहूभांति से संगयक हंस सौहंग के  समाजै।।04

हंस जब जात षटचक्र को  भेदकै सात मुकाम में नजर फेरा।सोहंग के परे सुरति  इच्छा कही  सहस वामन जहां हंस हेर।रूप की राशि ते रूप उनको बना नहीं उपमा इंदुजीनिवेरा।सुरति से भेटिके शब्द कोटिकेचढ़ देखि मुकाम अंकूरकेरा।05

शून्य के बीच में विमल बैठक जहां सहज स्थान है गैव केरा।नवों मुकाम यह हंस जब पहुचिया पलक विलंब वहां कियोडेरा।तहांसे डोरिमकतारज्यों लागिया ताहि  चढ़ हंसगौ दै दरेरा।।06

भया आनन्द फन्द सब छोड़िया पहँुचा जहाँ सत्यलोक मेरा।।

श्री रामचन्द्र जी के साकेत लोक का वर्णन


{हंसनी (नारी रूप पुण्यात्माऐं) हंस (नर रूप पुण्यात्माऐं)}

हंसनी हंस सब गाय बजाय के साजि के कलश बहिलेने आए।।

युगन युगन के बिछुड़े मिले तुम आय कै प्रेम करि अंग से अंग लाए।।

पुरूष दर्श जब दीन्हा हंस को तपत बहु जन्म की तब नशाये।।

पलिट कर रूप जब एक सा कीन्हा मानो तब भानु षोडश  उगाये।।

पुहुप के दीप पीयूष (अमृत) भोजन करें शब्द की देह सब हंस पाई।।

पुष्प का सेहरा हंस और हंसनी सच्चिदानंद सिर छत्र छाए।।

दीपैं बहु दामिनी दमक बहु भांति की जहाँ घन शब्द को घमोड़ लाई।।

लगे जहाँ बरसने घन घोर कै उठत तहाँ शब्द धुनि अति सोहाई।।

सुन्न सोहैं हंस-हंसनी युत्थ (जोड़े-झुण्ड) ह्नै एकही नूर एक रंग रागै।।करत बिहार (सैर) मन भावनी मुक्ति में कर्म और भ्रम सब दूर भागे।।रंक और भूप (राजा) कोई परख आवै नहीं करत कोलाहल बहुत पागे।।

काम और क्रोध मदलोभ अभिमान सब छाड़ि पाखण्ड सत शब्द लागे।।पुरूष के बदन (शरीर) कौन महिमा कहूँ जगत में उपमा कछु नाहीं पायी।।

चन्द और सूर (सूर्य) गण ज्योति लागै नहीं एक ही नख (नाखुन) प्रकाश भाई।।परवाना जिन नाद वंश का पाइया पहुँचिया पुरूष के लोक जायी।।

कह कबीर यही भांतिसो पाइहो सत्य पुरूष की राह सो प्रकट गायी।।

सदाशिव संहिता में भी यह वर्णित है किन्तु वहां साकेत में महा शिव का रूप भी विराजमान है।इसके अलावा श्री हरि के विराट स्वरूप का वर्णन है जिसके रोम रोम में अनंत कोटि ब्रह्माण्ड हैं।

एक ब्रह्माण्ड में 14 लोक ,इसके अलावा देव लोक के तहत वैकुंठ,शिवलोक आदि भी हैं।ऐसे कोटि कोटि ब्रह्माण्ड जिसमें परमाणु के समान दिख पड़ते हैं,वही श्री हरि का श्रेष्ठ स्वरूप है।

कबीर सागर में यह झूलना छंद दिया है।मोक्ष मार्ग में स्वर्ग,वैकुंठ,ज्योति निरंजन लोक ,सोरह , अचिंत ,एवम् सोहंग,वामन और फिर गोलोक श्रीकृष्ण के बाद सतलोक आता है। कारण श्री कृष्ण उस आत्मा को हंस शरीर देते हैं और फिर उसी विग्रह से सबके मूल श्री भगवान को वह देखता है।

यहां पर यह लेख समाप्त किया जाता है।

धन्यवाद।।










टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
ज्योति निरंजन या काल निरंजन जिसका जिक्र संत मत साहित्य मे एक परमात्मा के क्रूर निर्दयी पुत्र के रूप मे किया गया है कबीर बीजक मे भी इसका जिक्र है राधा स्वामी मत मे भी इसे नकारात्मक शक्ति कहा है जो जीवों को साकार और निराकार रूप मे भरमाये रखना चाहता है और कुछ संत को राम और कृष्ण को इसी काल निरंजन का अवतार कहते हैँ जो पहले जीवो के मन मे स्थित होके उनसे पाप कर्म करवाता है फिर उनको आसुरी शक्तियों द्वारा प्रताड़ित करता है फिर अवतार का स्वांग धरके रक्षक बनके सम्पूर्ण संसार मे महायुद्ध करवा के जीवो का महाविनाश करके सबको पुनः 84 लाख योनियों मे घुमाता रहता है.. यह काल पुरुष ही क्या विराट पुरुष है.? ब्रह्मा विष्णु महेश का पिता और आदिशक्ति का पति यही काल ब्रह्म है पहले मुझे लगता था की ढोंगी रामपाल ने अपने मन से यह कथा रची है लेकिन संत मत साहित्य की पुस्तकों जैसे बीजक, सनसम वेद,अनुराग सागर,घट रामायण मे इसका विस्तार से उल्लेख है की नकारात्मक शक्ति काल ब्रह्म ही राम,कृष्ण अवतार रूप मे आता है ब्रह्मा बिष्णु शिव इसीलिए की आज्ञा से चलते हैँ दुर्गा इससे भयभीत रहती हैँ मेरा मन भ्रमित हो रहा है क्या सत्य है कृपया समाधान करें 🙏🙏 . कृपया इन शंकाओ का समाधान करें जय श्री राम
Sandeep sihare ने कहा…
मैं मानता हूं कि जैसा आप समझ रहे हैं ,वैसा कुछ भी नहीं है ,कारण की आप श्री कृष्ण तत्व से अपरिचित हैं।
श्रीमद्भागवत पुराण में श्री कृष्ण को स्वयं भगवान कहा गया है। (प्रमाण -भागवत प्रथम खंड -१, अध्याय ३,२८)

प्रथम खंड -०१
अध्याय २,३० यद्यपि भगवान श्री कृष्ण प्रकृति से परे एवम् गुणातीत हैं।,उन्होंने अपनी माया से ,जो संसार की दृष्टि से है किन्तु तत्व की दृष्टि से नहीं,उन्हीं परमेश्वर ने सर्ग के आरंभ में इस संसार की रचना की।
अध्याय ३,१
सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा की, तब उन्होंने १६ तत्वों से संपन्न पुरुष रूप ग्रहण किया,एवम् कारण जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया ,सो उनके नाभि कमल से ब्रह्मा जी प्रकट हुए। इन्हीं परमेश्वर को नारायण तथा परमेश्वर का प्रथम अवतार कहा गया। तथा यही विराट पुरुष हैं ,इनके अनंत सिर ,अनंत पैर ,नेत्र आदि हैं।

भागवत में विराट पुरुष श्रीनारायण को प्रथम अवतार बताया गया जबकि रामपाल ने विराट रुप को काल ब्रह्म माना!
Sandeep sihare ने कहा…
आप श्री मद्भागवत गीता में भी देखिए
अध्या 6

31 जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्ति पूर्वक सेवा करता है वह हर प्रकार से मुझ में सदैव स्थित रहता है।

अध्याय -७

21 मैं प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा स्वरुप स्थित हूं जैसे ही कोई किसी देवता की पूजा करने की इच्छा करता है मैं उसकी श्रद्धा को स्थिर कर देता हूं जिससे वह उसी विशेष देवता की भक्ति कर सके।


अध्याय 10


16 इस जगत में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं जहां जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है किंतु हे कुंती पुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।

21जिसे वेदांती आप्रकट तथा अविनाशी बताती हैं जो परम गंतव्य है जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता वही मेरा परमधाम हैं।

22 भगवान ,जो सबसे महान हैं अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किए जा सकते हैं यद्यपि वे अपने धाम में विराजमान रहते हैं तो भी बे सर्वव्यापी हैं और उनमें सब कुछ स्थित है।

अध्याय -१३
18 वे समस्त प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाश स्रोत हैं। बे भौतिक अंधकार से परे हैं और अगोचर हैं।बे ज्ञान, गेय और ज्ञान के लक्ष्य हैं। वे सबके हृदय में स्थित हैं।
23तो भी इस शरीर में एक अन्य दिव्य भोक्ता है ,जो ईश्वर है, परम स्वामी हैं और साक्षी तथा अनुमति देने वाले के रूप में विद्यमान है और जो परमात्मा कहलाता है।
अध्याय -१५
06न तद्भासयते सूर्यो न शशांक न पावक:! यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम‌।।
वह मेरा परमधाम न तो सूर्य या चंद्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या ‌से जो लोग वहां पहुंच जाते हैं,वे इस भौतिक जगत में फिर से लौटकर नहीं आते।
07ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:। मन: षष्ठानि इंद्रियानि प्रकृतिस्थानि करषति।
12सूर्य का तेज जो सारे विश्व के‌ अंधकार को दूर करता है ,मुझसे ही निकलता है चंद्रमा तथा अग्नि के तेज भी मुझसे उत्पन्न हैं
13 प्रत्येक लोक में प्रवेश करता हू और मेरी शक्ति से सारे लोक अपनी कक्षा में स्थित रहते हैं। चंद्र वनकर समस्त वनस्पतियों को जीवन रस प्रदान करता हूं।

14अह वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:।

प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यत्र चतुर्विधम्।।

15मैं प्रत्येक जीव के ह्रदय में असीन हूं और मुझ से ही स्मृति ,ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने के योग्य हूं।निस्संदेह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूं।
16द्वाविमौ पुरूषो लोके क्षरच्श्राक्षर एव च।

क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोअक्षर उच्यते।।
17इन दोनों के अतिरिक्त एक परम पुरूष परमात्मा है ,जो साक्षात अविनाशी भगवान है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके उनका पालन कर रहा है।
18चूंकि मैं क्षर तथा अक्षर दोनों के परे हूं और मैं सर्वश्रेष्ठ हूं ।अतएव मैं इस जगत में तथा वेदों में परम पुरूष के रुप में विख्यात हूं।

ऊपर दिए गए प्रामाणिक तथ्य हैं।
पहली बात श्री कृष्ण परमेश्वर को समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित बता रहे हैं और फिर स्वयं को भी ऐसा ही बताते हैं।
अब यह आप ही सोचिए कि शरीर में दो ही आत्माएं हैं ,एक जीव आत्मा व दूसरी परमात्मा।
अर्थात स्पष्ट है वह स्वयं परमेश्वर ही हैं।
उनमें और परमेश्वर में कोई भेद नहीं।

दूसरे ब्रह्मलोक तक के सारे लोक नाशवान हैं ,जबकि कृष्ण लोक शाश्वत है,जिसे प्राप्त कर लौटना नहीं होता।

तीसरे श्री कृष्ण कहते हैं की जो योगी मुझे एवम् परमेश्वर को एक मानते हुए परमेश्वर का ध्यान करता है,वह सब प्रकार से मुझमें ही विद्यमान है।
चौथा श्री कृष्ण परमेश्वर को क्षर एवम् अक्षर से श्रेष्ठ बताते हैं तो फिर स्वयं को क्षर और अक्षर से श्रेष्ठ पुरुषोत्तम बतलाते हैं
यहीं पर रामपाल हमें मूर्ख बना रहे थे ,भला ऐसा भी हो सकता है कि हम श्री कृष्ण की कोई बात सत्य मान ले और कुछ को असत्य।

अब ब्रह्म वैवर्त पुराण में
श्री कृष्ण ने नन्द बाबा को स्वयं कहा है कि में देवों में श्री कृष्ण नाम से प्रसिद्ध हूं एवम् परम स्वतंत्र हूं,मुझ से उपर कोई सत्य नहीं है।

और फिर श्री कृष्ण का निज लोक इस जगत में थोड़े ही है ,वह अनंत कोटि ब्रह्मांडो से अति पारे विरजा के उस पार दिव्य व्योम में मौजूद माना जाता है।
पद्म पुराण में ,गर्ग संहिता,ब्रह्म वैवर्त पुराण,ब्रह्म संहिता आदि में विस्तार से जानकारी दी है।
ब्रह्म संहिता में श्री कृष्ण को परम सत्य माना गया है।
ऐसे हजारों प्रमाण हैं जो श्री कृष्ण को ही परमेश्वर बताते हैं।
आशा करता हूं आप तथ्यों को जरूर समझेंगे,फिर किसी निश्चय पर पहुंचे।
Unknown ने कहा…
फिर कृष्ण जी ने अर्जुन से क्यों कहा की तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके है, और आगे भी होते रहेंगे।