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देवी कौशिकी कौन थी ,उन्होंने शुंभ एवम् निशुंभ का वध क्यों किया था ?
सरस्वती(देवी कौशिकी) अवतार -
पूर्व काल में शुंभ एवं निशुंभ नामक दो दैत्य थे ,जो आपस में भाई -२ थे,उन दोनों ने देवताओं को जीत लिया एवम् स्वर्ग में रहकर सारे संसार पर शासन करने लगे।
इससे दुखी होकर देवता हिमालय पर्वत पर जाकर देवी उमा की स्तुति करने लगे,इसी बीच देवी पार्वती स्नान हेतु गंगा तट पर आईं तब देवताओं से देवी ने कहा - आप लोग यहां किसकी स्तुति कर रहे हैं,उनके इतना कहते ही देवी गौरी के शरीर से एक कन्या प्रकट हुई और बोली -, माते ! यह सभी देवता मेरी स्तुति कर रहे हैं ,क्योंकि यह शुंभ - निशुंभ से पीड़ित हैं।यह देवी के शरीर से प्रकट हुई ,सो कौशिकी कहलाती है।
कौशिकी ने देवताओं से कहा - आप सब निर्भय होकर रहो , मैं स्वतंत्र हूं , अत: किसी का सहारा लिए बिना ही तुम्हारा सारा कार्य सिद्ध कर दूंगी। ऐसा कहकर देवी वहां से अदृश्य हो गईं।
एक दिन शुंभ एवम् निशुंभ के सेवक चंड - मुंड ने देवी को हिमालय के शिखर पर देखा ,उस मनोहर रूप को देखकर मोहित हो वह दोनों भूमि पर बेहोश हो गिर पड़े, होश में आने पर वह शुंभ एवम् निशुंभ के पास आए एवम् उनसे कहने लगे - महाराज ! हमने एक अपूर्व सुंदरी देखी है ,जो हिमालय के शिखर पर रहती है वा सिंह सवारी करती है।
तब शुंभ ने देवी के पास अपना संदेश दूत के माध्यम से भेज दिया।
दूत ने हिमालय शिखर पर श्री देवी को शुंभ का संदेश
सुनाया - शुंभ के शब्दों में
देवी ! मैंने युद्ध में समस्त देवताओं को हराकर उनके दिव्य रत्नों का हरण कर लिया। तुम स्त्रियों में रत्न हो अतः मुझे अथवा मेरे भाई को पति रूप में स्वीकार कर लो।
शुंभ का संदेश सुनकर भूतनाथ शिव की प्रिया महामाया हंसकर उस दूत से बोली - दूत!
तुम सत्य कहते हो,तुम्हारे कथन में असत्य कुछ नहीं है किन्तु मेरी एक प्रतिज्ञा है कि जो मुझे युद्ध में जीत ले,मेरे घमंड को चूर - २ कर दे ,वही मेरा पति होगा।मेरा यह सन्देश तुम शुंभ एवम् निशुंभ को दे दो,वाद में वो जैसा उचित समझें, करें।
सुग्रीव दूत ने वहां से लौटकर शुंभ और निशुंभ को सब कुछ बता दिया।
तब तो उसने अत्यन्त कुपित हो धूर्माक्ष को सेना सहित देवी से लडने भेजा। देवी की हुंकार मात्र से वह जलकर राख हो गया
तब तो फिर उसने रक्तबीज , चड- मुंड आदि को भेजा
,वह सभी हिमालय पर आकर देवी से कहने लगे,- देवी ! तुम शुंभ निशुंभ के पास चलो ,नहीं तो तुम्हे गण एवम् वाहन सहित मरवा डालेंगे।
तुम शुंभ अथवा निशुंभ को पति के रूप में स्वीकार कर लो ।।
तुम्हें उस सुख की प्राप्ति होगी,जो देवताओं को भी दुर्लभ है।
उनकी बातों को सुनकर देवी वोली - अद्वितीय महेश्वर परब्रह्म परमात्मा सर्वत्र विराजमान हैं, जो सदाशिव कहलाते हैं। वेद भी उनके तत्व को नहीं जानते,फिर विष्णु आदि की तो बात ही क्या है।उन्हीं सदाशिव की मैं सूक्ष्म प्रकृति हूं फिर दूसरे को पति कैसे बना सकती हूं।सिंहिनी कितनी भी कामातुर क्यों न हो जाए ,वह गीदड़ को कभी अपना पति नहीं बनाएगी।
तुम सब लोग गलत बोलते हो तथा काल के फनदें में फंसे हो।
अत: पाताल लोक को लौट जाओ।
चंड, मुंड आदि दैत्य बोले - हम तुम्हें अबला समझ रहे थे ,अब तुम युद्ध के लिए तैयार रहो,इस प्रकार कलह बड़ने पर बड़ा भारी युद्ध होने लगा,देवी का सिंह भी युद्ध करने लगा।
कालिका देवी का चंड - मुंड के साथ युद्ध हुआ,बाद में उन्होंने उन दोनों का वध कर दिया। रक्तबीज के साथ महामाया का युद्ध हुआ,रक्तबीज को शिव का वरदान था कि जैसे ही उसकी रक्त की बूंद धरती पर गिरेगी,तुरन्त एक नया रक्तबीज पैदा हो जाएगा । इस कारण से रक्तवीज को मारना कठिन हो रहा था ,तब देवी ने काली से कहा कि तुम रक्त को धरती पर गिरने से पहले उसे भक्षण कर लिया करो। कालिका देवी के ऐसा करने पर शिवा देवी ने उसको मार डाला।
इसके बाद कई वीर आए तथा स्वयं निशुंभ भी आया परंतु सबके सब देवी के हाथों मारे गए।
निशुंभ के मारे जाने पर शुंभ क्रोध के मारे पागल हो गया था वह अष्ट भुजा धारण करके युद्ध क्षेत्र में अंबिका के पास आया।उसने संख बजाया ,बड़े जोर का गर्जन किया।तब देवी के सिंह ने भी गर्जना की,इससे आकाश गूंज उठा।
इसके बाद शुंभ एवम् देवी का बड़ा भयंकर युद्ध हुआ।
वह दैत्य भी बड़ा बली था,शूल का घातक प्रहार सहन कर गया।देवी पर उसने चक्र से प्रहार किया,जिसे देवी ने चक्र से ही काट डाला।
कभी वह तीर से, तो तलवार से आक्रमण करता,परंतु देवी उसके अस्त्रों को नष्ट कर डालती। कालिका एवम् सिंह भी युद्ध में शत्रु सेना को नष्ट कर रहे थे।
अब देवी ने त्रिशूल से उस पर प्रहार किया ,जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हो गया।
शुंभ के मारे जाने पर बचे हुए दैत्य पाताल में घुस गए।
स्वर्ग में ढोल नगाड़े बज उठे, गंधर्व गीत गाने लगे ,सारे देवता सुख को प्राप्त हो गए।सबने देवी की आरती उतारी ,पूजन किया।
महामाया वा कालिका ने अपनी शक्ति से समस्त असुरों को पराजित करके देवताओं को उनका हरा हुए राज्य वापस कर दिया ।
इसके बाद देवी माता पार्वती में लीन हो गई।वह दोनों परमपद के भागी हुए।
इस उमा चरित को जो कोई श्रवण करता है,वह उमालोक को प्राप्त होता है।
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