- लिंक पाएं
- X
- ईमेल
- दूसरे ऐप
Featured post
तथाकथित संत रामपाल जी ने कबीर साहब के नाम पर हिन्दू जनमानस को गुमराह किया,rampal ji ne kabeer sahab ke nam par hinduon ko gumrah kiya.
- लिंक पाएं
- X
- ईमेल
- दूसरे ऐप
तथाकथित संत रामपाल जी ने कबीर साहब के नाम हिन्दू जनमानस को गुमराह किया।
श्रीमद्भागवत गीता के आधार पर --------
अध्याय 6,30
जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझ में देखता है उसके लिए ना तो मैं कभी अदृश्य होता हूं और ना वह है मेरे लिए अदृश्य होता है।
रामपाल जी ने तो कहा कि काल कभी दर्शन नहीं देता परंतु यहां काल ब्रह्म क्या कह रहा है ,आप खुद ही देख लें।
नीचे के श्लोक में परमात्मा और श्री कृष्ण को अभिन्न कहा है।
31 जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्ति पूर्वक सेवा करता है वह हर प्रकार से मुझ में सदैव स्थित रहता है।
अध्याय 7
07 ही धनंजय मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है जिस प्रकार मोती धागे में गुथे रहते हैं,उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।
-- -: श्री कृष्ण क्लियर बोल रहे हैं कि मुझे बड़ा कोई नहीं है।
21 मैं प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा स्वरुप स्थित हूं जैसे ही कोई किसी देवता की पूजा करने की इच्छा करता है मैं उसकी श्रद्धा को स्थिर कर देता हूं जिससे वह उसी विशेष देवता की भक्ति कर सके।
अध्याय 18, श्लोक 64
सर्वगुह्यतमम् भूयः श्रुणु मे परमं वचः |
इष्टः असि मे दृढम् इति ततः वक्ष्यामि ते हितम् || 64 ||
रामपाल जी द्वारा अनुवादित - हे अर्जुन! मैं फिर से सभी गोपनीयों में से सबसे गोपनीय, मेरे परम रहस्यमय हितकारी शब्द तुझे कहूंगा, इन को सुनो- यह पूर्ण ब्रह्म (पूर्ण परमात्मा) मेरा भी निश्चित इष्टदेव अर्थात पूज्यदेव है ”
वास्तविक अर्थ -
क्योंकि तुम मेरे अत्यंत प्रिय मित्र हो अतएव मैं तुम्हें अपना परम आदेश जो सर्वाधिक गुप्त ज्ञान हैं बता रहा हूं इसे अपने हित के लिए सुनो।
वास्तविक अर्थ -
सदैव मेरा चिंतन करो मेरे भक्त बनो मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगी मैं तुम्हें वचन देता हूं क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय मित्र हो।६५!
सर्वधर्मान परित्यज्य माम् एकम् शरणम् वज्र।अहम् त्वा सर्वपापेभ्यः मोक्षयिष्यामि नमामि मा शुचः।।६६
विशेष - रामपाल जी ने व्रज शब्द का अर्थ जाना किया है,ऐसा ही अर्थ अन्य पूर्व विद्वानों ने किए ।
काल कहता है, " मेरी सभी धार्मिक पूजाओं को मुझमे त्याग कर, तू केवल उस एक पूर्ण परमात्मा (परमपिता परमात्मा) की शरण में जा। मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा; तू शोक मत कर।
वास्तविक अर्थ -
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा। डरो मत।
विशेष - अगर मान भी लिया जाए कि श्री कृष्ण इस श्लोक में परमात्मा की शरण में जाने को कह रहे हैं तब श्री कृष्ण पापों से मुक्त क्यों करेंगे।
जबकि इससे पहले वह उसे परमेश्वर शरण में जाने को बोल चुके थे,तो यह श्लोक श्री कृष्ण ने खुद के लिए बोला हैं।
अध्याय 8 : श्लोक-16
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।
हे अर्जुन ! ब्रह्मलोक तक सारे लोक पुनरावृत्ति वाले हैं परंतु हे कुंतिपुत्र अर्जुन ! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता क्योंकि मैं कालातीत हूं और यह ब्रह्मा आदि के लोक काल से सीमित अर्थात अनित्य हैं।
विशेष - ब्रह्म लोक तक के लोकों में सभी १४ भुवन हैं, ब्रह्मलोक के अंतर्गत शिव लोक, वैकुंठ लोक, आदि शामिल हैं।
श्री कृष्ण चन्द्र का लोक इस ब्रह्मांड में है ही नहीं ,उनका लोक ब्रह्म वैवर्त पुराण,देवी भागवत पुराण, महेश्वर तंत्र ,गर्ग संहिता एवम् ब्रह्म संहिता के अनुसार करोड़ों ब्रह्मांडो से ऊपर विरजा नदी के उस पार त्रिपाद विभूति से व्याप्त दिव्य गोलोक धाम है,इसका विस्तार अनंत है,इसमें असंख्य वैकुंठ लोक हैं,जहां सर्वोच्च लोक वृंदावन को माना जाता है।जहां श्री कृष्ण राधा देवी के साथ रहते हैं।
यह गोलोक धाम काल और माया से परे हैं ,मन बानी और इन्द्रियों की पहुंच नहीं हैं।
पद्म पुराण में भी शिव जी ने त्रिपाद विभूति से व्याप्त राम नारायण के दिव्य वैकुंठ लोक तथा श्री कृष्ण लोक गोलोक धाम को मोक्ष स्थान कहा है ,मेरे श्री हरि लेख में राम नारायण के निवास वैकुंठ लोक का बड़ा ही सुंदर वर्णन है ।
देखिए श्री कृष्ण ने स्वयं क्या कहा है।
अध्याय१५ ,६
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: ।यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥6॥
भावार्थ
वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से। जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत में फिर लौट कर नहीं आते।
विशेष - ऐसा ही गोलोक धाम का विवरण वेदों के ज्ञाता व्यास जी महाराज ने राजा उग्रसेन को दिया था।
उन्होंने गोलोक धाम को माया ऑर काल से परे कहा है (जो गर्ग संहिता में दिया है )
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: ।मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥7॥
भावार्थ
इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश है। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिनमें मन भी सम्मिलित है।
विशेष - यहां श्री कृष्ण ने क्लियर बोला है कि सारे जीव उन्हीं के अंश है,गीता में ही उन्होंने कहा कि सारे संसार को वह अपने एक अंश से धारण करें है।
अध्याय 15 श्लोक 16
द्वौ इमौ पुरुषौ लोके क्षरः च अक्षरः एव च |क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थः अक्षरः उच्यते || 16 ||
रामपाल जी अनुसार -
इस संसार में, दो प्रकार के भगवान हैं, नाशवान और अविनाशी और सभी प्राणियों के शरीर नाशवान और आत्मा अविनाशी कही जाती है।।
यहाँ तीनों भगवानों का अलग-अलग वर्णन है - दो भगवान क्षर पुरुष (नाशवान भगवान) और अक्षर पुरुष (अविनाशी भगवान) हैं। वास्तव में, अविनाशी/अमर भगवान इन दोनो से अन्य है जो अमर परमात्मा, परमेश्वर (सर्वोच्च ईश्वर), सतपुरुष के रूप में जाने जाते हैं।
गीता अध्याय 15 श्लोक 17- वास्तव में शाश्वत तो पूर्ण परमात्मा है।
अध्याय 15 श्लोक 17,उत्तमः पुरुषः तु अन्यः परमात्मा इति उदाहृतः ।यः लोकत्रयम् आविश्य बिभर्ति अव्ययः ईश्वरः।17।
हालाँकि, सर्वोत्तम परमात्मा तो कोई और है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी का पालन-पोषण करते हैं और उसे अमर परम ईश्वर कहते हैं।
विशेष -
विशेष - महेश्वर तंत्र में स्पष्टत: शिव जी ने माता पार्वती को तीन पुरुष का विवरण दिया।पहले पुरुष सारे जीव - यहां तक कि आदि नारायण भी।
अक्षर पुरुष - यह परमेश्वर खेल -२ में अगणित ब्रह्मांड बनाते ऑर नाश करते रहते हैं।प
परमअक्षर पुरुष - अक्षर पुरुष से उत्तम हैं इन्हें दिव्य ब्रह्मपुर वासी कहा गया है ,यही श्री कृष्ण पुरुषोत्तम कहे जाते हैं।
ब्रह्म संहिता से भी शिव वचनों की पुष्टि होती हैं।
देखिए शिव वचनों की पुष्टि स्वयं श्री कृष्ण कर रहे हैं।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: । अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:।१८।
क्योंकि मैं क्षर तथा अक्षर दोनों के पर हूं चूंकि कि मैं सर्वश्रेष्ठ हूं अतएवं में इस जगत में तथा वेदों में परम पुरुष के रूप में विख्यात हूं।।
विशेष - भगवान स्वयं को परम पुरुष कह रहे हैं,जिसका अर्थ उत्तम पुरुष होता है।
श्री कृष्ण ही वेदों के संकलन कर्ता ऑर वेदों के द्वारा वही जानने योग्य हैं।
भगवान ने स्वयं बोला की वह धरती ,सूर्य , चांद आदि में प्रवेश कर धारण किए है अर्थात सारे लोकों में स्वयं शक्ति से प्रवेश हैं।
आप खुद देखिए आगे के श्लोक -
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥12॥
भावार्थ
सूर्य का तेज, जो सारे विश्व के अंधकार को दूर करता है, मुझसे ही निकलता है। चन्द्रमा तथा अग्नि के तेज भी मुझसे उत्पन्न हैं।
अध्याय 15 : श्लोक-13
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक: ॥13॥
मैं प्रत्येक लोक में प्रवेश करता हूँ और मेरी शक्ति से सारे लोक अपनी कक्षा में स्थित रहते हैं। मैं चन्द्रमा बनकर समस्त वनस्पतियों को जीवन-रस प्रदान करता हूँ।
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवत गीता में कबीर शब्द नही आया है जबकि रामपाल जी का मानना है कि परम अक्षर ब्रह्म का वास्तविक नाम कबीर है। जब श्री कृष्ण बाणी गीता में कबीर शब्द नहीं है तब हम कैसे मान लें कि श्री कृष्ण जिस परमेश्वर की बात कर रहे हैं, वह कबीर दास परमेश्वर हैं।।
दूसरे श्री हरि ने जो परमेश्वर के गुण बताये हैं, वही गुण उनके भी हैं अर्थात श्री कृष्ण ही परमेश्वर हैं।
जैसे परमेश्वर समस्त जीवों के ह्रदय में वास करते हैं ,वह तीनों लोक में प्रवेश कर सबका धारण पोषण करते हैं। वह भौतिक अंधकार से परे दिव्य लोक में स्थित हैं वह व्यापक हैं।
दूसरे अब हम कबीर दास जी की वाणी रूप परम प्रामाणिक कृति बीजक में देखें तो उसमें सार नाम राम है न कि स्वयं कबीर दास ।
वह लोगों से निर्गुण राम नाम जाप करने को कहते हैं।कबीर जी ने परमेश्वर को अनेक नामों से पुकारा जैसे - केशव,रहीम ,श्री हरि,गोविंद, राम आदि परंतु कबीर दास के परमेश्वर दशरथ पुत्र राम नहीं हैं !
बीजक का हिंदी अनुवाद कबीर दास भक्त वीर सिंह बघेल ने किया था ,उन्होंने स्वयं कबीर दास की आज्ञा से उनकी बाणी का अर्थ किया. सो सत्य पुरूष अर्थात परम अक्षर ब्रह्म साकेत अधिपति श्री राम चन्द्र जी हैं ,यह साकेत छोड़़कर कभी कहीं नहीं जाते.
साकेत नगर के अन्य नाम ब्रह्म पुर, अयोध्या,सत्य ,कौशल ,अपराजिता आदि हैं (वशिष्ट संहिता)
अयोध्या नगरी में आठ चक्र एवं नवं द्ववार हैं,उसमें तेजोमय कोश के भीतर ब्रह्म स्थित है(अथर्ववेद)
शिव संहिता में भी अयोध्या नगरी के आठ चक्र एवं नवं द्ववार बतलाये गय हैं,इसमे राम ब्रह्म का वास है.
शिव संहिता में सत्यलोक का विस्तार से वर्णन है . इसमें साकेत तक मोक्ष मार्ग के कुल १० मुकाम का वर्णन है.
यही दसों अर्थात साकेत भी कुल दस मुकाम का वर्णन कबीर साहब झूलना रेखता छंद में है.
श्री कृष्ण ही साकेत लोक में पर ब्रह्म राम के रुप में स्थित है.
साकेत का वर्णन शिव संहिता,शुक संहिता,हनुमद संहिता ,वेद सार उपनिषद आदि में विस्तार से वर्णन है....
कबीर दास जी परमेश्वर के अनन्य भक्त थे इसलिए तो वह स्वयं को परमेश्वर(राम) का वफादार कुत्ता कहने में भी संकोच नहीं करते।
बीजक में परम अक्षर व्रह्म(राम) के जानकर कुछ भक्त जैसे - वशिष्ट मुनि,याज्ञवल्क्य , शुकदेव आदि!
शुकदेव मुनि तत्त्व ज्ञानी ऋषि थे .
अब हम पुराणों की चर्चा कर लेते है
पुराणों से से भी यह सिद्ध नहीं हो सकता कि कबीर दास परमेश्वर हैं कारण भविष्य पुराण को छोड़कर पुराणों में कबीर चरित है ही नहीं
भविष्य पुराण में भी कबीर दास जी को श्री राम भक्त कहा गया है.
अगस्त्य संहिता के भविष्य खण्ड में प्रल्हाद के अवतार कबीर दास को कहा गया है.
व्रह्म वैवर्त पुराण में श्री कृष्ण को पूर्ण परमेश्वर कहा गया है और स्पष्ट श्वेतद्वीप अधिपति विष्णु ,कारणवारि में शयन करने वाले महाविष्णु ,वैकुण्ठ के नारायण की चर्चा है.
महाविष्णु के एक -२ रोमकूप में एक -२ ब्रह्मान्ड की स्थिति है,सो ऐसे अगणित ब्रह्माण्डों के अधिपति महाविष्णु है .यह महाविष्णू श्री कृष्ण के १६ वें अंश हैं.
और सृष्टि से पहले सम्पूर्ण आकाश अंधकार से व्याप्त था ,उस समय किसी भी तत्त्व का अभाव नहीं था . उस समय एकमात्र गोलोकधाम में श्रीकृष्ण विराजमान थे,तब उन परमेश्वर अपने शरीर से सत्व ,रज आदि गुणों की सृष्टि की ,इसके बाद नारायण ,शिव ,दुर्गा ,ब्रह्मा आदि भगवान से प्रकट हुये. इसके बाद विराट पुरूष की सृष्टि हुई जो विशाल अण्डे से उत्पन्न हुये.
प्रत्येक जगत में विराट भगवान विष्णु रुप से प्रकट होते हैं,उनके नाभि से ब्रह्मा जी प्रकट होकर संसार की रचना विष्णु ,शिव की कृपा से करते हैं. सो इस प्रकार अनेक जगत होने से विष्णु आदि भी करोडों है.
इन सबके ईश्वर महाविष्णु और उनके भी ईश्वर श्री कृष्ण परमेश्वर हैं
ऐसा ही विवरण देवी भागवत में भी है ,किंतु वहा़ महाप्रलय मे कृष्ण भी देवी में लीन हो जाते हैं और अंत में शक्ति शेष रहती है.
अर्थात भगवती श्री देवी ईश्वर हैं.
शिव पुराण में भी सृष्टि से पूर्व आकाश अंधकार से व्याप्त था और उस समय सभी २४ तत्त्व नहीं थे एकमात्र सद ब्रह्म ही (निर्गुण एवं निराकार तथा व्यापक) ,वह सद ब्रह्म ही सदाशिव के रुप में प्रकट हुया ,उससे उसकी स्वरूपभूता शक्ति दुर्गा प्रकट हुईं. शिव शक्ति ने शिवलोक की रचना की
फिर दोनों से विष्णु प्रकट हुये ,शिव ने उन्हें वेद ज्ञान दिया तब विष्णु ने तप किया जिससे उनके शरीर से जल धारायें निकली ,फिर विष्ण से ब्रह्मा प्रकट हुये .ब्रह्मा जी ने उस जल में पिण्ड से ब्रह्माण्ड को रचा ,जिससे श्रीहरि प्रवेश करन पर विशाल व्रह्माण्ड सजीव हुया
और विधि ने' सृष्टि की.
लगभग भागवत व अन्य पुराण में भी सृष्टि रचना एक जैसी ही है
वहां केबल विष्णु से रचना दी है.
अपने देखा कि पुराणों से भी यह सिद्ध नहीं होता कि कबीर साहेब नामक कोई परमेश्वर हैं अरे जब इन पुराणों में कबीर चरित है ही नहीं तो सिद्ध कहां से होगा.
देखा अपने रामपाल जी पुराण के आधार पर कबीर को परमेश्वर साबित कर रहे थे, जो सरासर गलत है.
ऐसा वेदों में भी है ,वहां कवि शब्द है ,जिसका अर्थ कबीर देव रामपाल जी ले रहे हैं.
जबकि कवि शब्द का मतलव सर्वज्ञ है . जो कि परमेश्वर के लिये हैं .
ऋग्वेद का दसवां मन्डल पुरुष सूक्त है जहाँ विराट पुरुष की एक पाद और चतुष्पाद विभूति का वर्णन है.
इसका अर्थ रामपाल जी ने कबीर सागर के आधार पर किया है.
जबकि उसका अर्थ वैसा बनता ही नहीं.
विस्तर भय से उल्लेख नहीं कर रहा हूं,क्षमा करें.
आप उनकी बेवसाइट पर जाकर पढ़ सकते हैं. आपको खुद ही समझ आ जायेगा कि क्या गलत है ? और क्या सही.
सो आपने देखा कि वेद ,पुराण और गीता में किसी भी प्रकार से कोई साबित नहीं कर सकता कि कबीर साहेब परम अक्षर ब्रह्म हैं अर्थात परमेश्वर हैं.
यह हमें भ्रमित किया गया
पर परमेश्वर की महिमा सब जानते हैं,कुछ बोलने की जरूरत नहीं है
मेरी पोष्ट पढ़ने के लिये आप सभी का धन्यवाद.
कृपया कमेंट कर मुझे ज्ञान प्रदान करें ,विद्वानों का इस ब्लोग पर स्वागत है.
टिप्पणियाँ