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Kabeer das ka jivan parichay ,kabeer das kaun the ? ,कबीर के निर्गुण ब्रह्म का स्वरूप क्या है?
जन भाषा में भक्ति नीति व दर्शन की किरणों का आलोक विकिरण करने वाले कवियों में कबीर आगे हैं।
कबीर का जन्म काशी में संवत 1455 के लगभग माना जाता है। उन्होंने अपना मृत्यु स्थान मगहर चुना कारण की उस समय एसी भ्रांति थी कि जो मगहर में मरेगा , उसे नरक में जगह मिलती है और काशी में मरने से मोक्ष ।
कबीर की प्रामाणिक उपलब्ध कृति बीजक है जिसमें साखी, सबद और रमैनी तीन भाग हैं।कबीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ जब समाज में कर्मकांड का प्राचुर्य और आडंबर पूर्ण आचार व्यवहार का प्रचलन था।
कबीर शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव को महत्व देते हैं। उन्होंने माना ब्रह्म एक है उसके अतिरिक्त जो भी दृश्य है वह माया है अर्थात असत्य है। उन्होंने माया का मानवीकरण कर उसी कंचन और कामिनी का पर्याय माना।उनके ईश्वर निर्विकार और अरूप हैं। उसी अवतार में प्रतिष्ठित ना कर उन्होंने प्रतीकों में स्थापित किया।
ब्रह्म ही उनके पति हैं और स्वयं वह उनकी पत्नी हैं अर्थात प्रियतम और प्रेयसी में जो दाम्पत्य प्रेम भाव है,वही कबीर का रहस्यवाद है।
कबीर की भाषा साधुक्कड़ी भाषा कही जाती यह भाषा सरस ओर सुबोध है।अध्यात्म का मार्ग समझने हेतु रूपक और प्रतीकों का प्रयोग किया।
कबीर ने जाति,वर्ग और संप्रदाय की सीमाओं का अतिक्रमण कर एक ऐसे मानव धर्म और समाज की स्थापना की जिसमे अलग -२ मत वाले लोग भी शामिल हो सकते हैं।
कबीर दास के संप्रदाय में दादू,सुंदर दास,गरीबदास,चरणदास आदि संत हुए।कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- 'मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
वह श्री हरि से कभी माता का रिश्ता तो कभी पति का नाता जोड़ लेते हैं ,देखिए - हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, 'हरि जननी मैं बालक तोरा'।
यहां आप देखेंगे कि कबीर दास की बाणी को उस नजरिए से देखा ही नहीं गया ऑर न समझा गया।
भाई रे!
दूई जगदीश कहां ते आये कहु कौने भरमाया।
अल्ला: राम करीम केशव हरि हजरत नाम धराया।।
साहब कहिए एक को दूजा कहो न जाए। दूजा साहब जो कहैं बात विडंबन आई।जन्म मरण ते रहित है,मेरा साहब सोए।।मैं बलिहारी पीउ की ,जिन सिरजा सब कोय।।
विशेष - कबीर दास जी ने समाज को यह बताया कि परमेश्वर तो सबका एक ही है केबल नाम भेद है अर्थात एक ईश्वर को हिन्दू राम कहता है तो दूसरा उसे अल्लाह कहता है।
कबीर दास का स्पष्ट कहना है कि विष्णु और उनके अवतारों को ईश्वर मानकर न पूजो ।कारण की वह परमेश्वर तो जन्म ऑर मरन से रहित है।
अब कबीर बानी को देखिए -
राम के नामते पिंड ब्रह्मांड सब रामका नाम सुनि भर्म मानी।निर्गुण निराकार के पार परब्रह्म है तासु का नाम रंकार जानी।विष्णु पूजा करें, ध्यान शंकर धरे भनै सुविरचि बहु विविध बानी। कहै कबीर कोई पार पावै नहीं राम का नाम अकह कहानी।।
जहां सतगुरु खेलैं ऋतु वसंत। तहां परम पुरुष सब साधु संत ।वह तीन लोक ते भिन्न राज। तहां अनहद धुनि चहुं पास बाज।।दीपक वरै जहां निराधार।विरला जन कोई पाव पार।।जहं कोटि कृष्ण जोरे दुह हाथ। जहैं कोटि विष्णु नवैं सुमाथ।जहां कोटि ब्रह्मा पड़ पुराण।जहां कोटि महादेव धरैं ध्यान।-----------तहां अजर पुरुष के दरस पाई।।
इसके अतिरिक्त झूलना रखता छंद में सतलोक तक का मार्ग दिया है,तथा सतलोक का भी वर्णन है। इस रेख़्ता छंद में उन्होंने अपने आराध्य का लोक व उनके स्वरूप को भी स्पष्ट कर दिया है।
उनके राम सतलोक के अंतर्गत साकेत नगर में रहते हैं और वह उस नगर को छोड़कर कहीं नहीं जाते। ऐसा कबीर बानी ऑर शिव संहिता ,वशिष्ट संहिता आदि से प्रूफ होता है।कबीर दास का कहना है कि राम का रूप व राम कहानी बहुत ही अद्भुत है।
दशरथ सुत तिहू लोक बखाना राम नाम का मरम है आना ।यहां स्पष्ट राम नाम का मतलब तो दूसरा ही है।
‘निरगुण राम निरगुण राम जपहु रे भाई।अवगति की गति लखी न जाई।।चारि वेद जाके सुमृत पुरांना,नौ व्याकरणां मरण ना जाना।।’’अर्थात कबीर दास जी निर्गुण राम नाम जपने को कहते हैं।उनके वह निर्गुण राम जीवों के अंत:करण में वास करते हैं देखिए -कस्तूरी कुंडली मृग बसे , मृग फिरे वन माहि।ऐसे घट घट राम है , दुनिया जानत नाही।।
जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।मोल करो तलवार का , पड़ा रहन दो म्यान। ।
व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि साधु की जाति नहीं होती है। उसकी जाति नहीं पूछना चाहिए बल्कि साधु का ज्ञान ग्रहण करना चाहिए। साधु का ज्ञान जात – पात से परे होता है। किसी भी व्यक्ति की विद्वता उसका ज्ञान उसके जात-पात के बंधनों से मुक्त होता है। किसी भी व्यक्ति का ज्ञान ही उसका मूल्य होता है।
जिस प्रकार मयान का कोई मूल्य नहीं होता बल्कि उस में रहने वाले तलवार का मूल्य होता है। युद्ध में मयान नहीं तलवार की पूजा की जाती है। इसी प्रकार शरीर का नहीं उसमे व्याप्त ज्ञान का मूल्य होता है जो परिश्रम और साधना से ही मिल पता है। इसलिए साधु के जात पात को नहीं उसके ज्ञान की पूजा करनी चाहिए।
कबीर कूता राम का, मुटिया मेरा नाऊ गले राम की जेवड़ी, जित खींचे तित जाऊं।।कामी क्रोधी लालची , इनसे भक्ति ना होए। भक्ति करे कोई सूरमा , जाती वरण कुल खोय। ।
व्याख्या – कबीरदास का स्पष्ट मानना है कि , भक्ति प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नहीं है। यह कोई दुर्लभ व्यक्ति ही कर सकता है , जिसने जाति , कुल , वर्ण आदि को खोया हो , वही भक्ति का वास्तविक रूप जान सकता है। भक्ति कोई कुत्सित विचार रखने वाला तथा क्रोध करने वाला और लालची व्यक्ति कतई अपने जीवन में नहीं कर सकते हैं।
तुलसी जीवन परिचय- Tulsidas ka jivan Parichay bataiye? ,Tulsidas Jeevan Parichay in Hindi in Short ,tulsidas ka janm sthan btao ? Tulsidas ki kahani kya h ?
गोस्वामी तुलसीदास का जन्म संवत् 1589 के आसपास बांदा जिले के राजापुर गांव में हुआ। पिता - आत्माराम ,माता - हुलसी।
स्वामी नरहरिदास के सानिध्य में तुलसी दास ने वेद पुराण व अन्य शास्त्रों का अध्ययन किया।संवत 1680 में स्वर्गवास हुआ।
प्रमुख कृति - दोहावली, कवितावली,विनय पत्रिका,पार्वती मंगल,हनुमान बाहुक।।प्रसिद्ध रचना रामचरित मानस है।उनके साहित्य में लोकहित,लोकमंगल की भावना सर्वत्र मुखर है।
भाषा- अवधी व व्रज भाषा।नवों रसों का प्रयोग
अलंकार ,छंद जैसे - दोहा,चौपाई,कवित्त ,सवैया आदि का सृजन किया है।
रामचरिमानस में मानवता के सर्वोच्च गुण की स्थापना।राजा मनु और शतरूपा ने अपने जीवन के अंतिम चरण में परम प्रभु अर्थात सच्चिदानंद ब्रह्म के दर्शन हेतु तपस्या करने नैमिषारण्य पहुंचे।
उर अभिलाष निरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥॥
भावार्थ:-हृदय में निरंतर यही अभिलाषा हुआ करती कि हम (कैसे) उन परम प्रभु को आँखों से देखें, जो निर्गुण, अखंड,
अनंत और अनादि हैं और परमार्थवादी (ब्रह्मज्ञानी, तत्त्ववेत्ता) लोग जिनका चिन्तन किया करते हैं॥2॥
* नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
भावार्थ:-जिन्हें वेद 'नेति-नेति' (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनंदस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैं॥
* ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥
भावार्थ:-ऐसे (महान) प्रभु भी सेवक के वश में हैं और भक्तों के लिए (दिव्य) लीला विग्रह धारण करते हैं। यदि वेदों में यह वचन सत्य कहा है, तो हमारी अभिलाषा भी अवश्य पूरी होगी॥
सो एक बार यह राजा मनु और शतरूपा ही दशरथ व कौशल्या के रूप में प्रकट हुए ,सो इनके यहां स्वयं साकेत बिहारी रामचन्द्र जी अवतरित हुए।
अन्य बार श्री वैकुंठ नाथ विष्णु राम के रूप आए ।तुलसीदास ने कई कल्पों की कथा कही। विद्वान सब जानते हैं।
यह विष्णु ,विराट पुरुष और श्री कृष्ण भी सब राम के ही अंग हैं।कोई कह सकता है कि वह तो वासुदेव का मंत्र जाप करते थे।
तो भाई साहब वासुदेव कौन हैं,? वासुदेव श्री कृष्ण को भी कहा जाता है और वैकुंठ नाथ को भी।श्री गोविन्द ऑर साकेत पति एक ही हैं।
समानताएं - Comparison between Tulsidas and Kabir Das
तुलसी दास जी ने ब्रह्म का उसी तरह वर्णन किया की जिस प्रकार से कबीर जी ने।।
तुलसीदास का भी ऐसा ही मानना था कि उसके पैर नहीं है,फिर भी वह चलता है,नेत्र नहीं है फिर भी देखता है।ऑर हाथ रहित होकर भी वह वस्तुओं को ग्रहण कर सकता है।निर्गुण ब्रह्म का ऐसा ही वर्णन वेदांत में मिलता है।
दोनों ने ही समाज सुधार पर ध्यान दिया।
कबीर व तुलसी के राम में अंतर(Writing difference between Kabir Das and tulsidas) -
सबसे बड़ा अंतर यह है कि तुलसी के राम दशरथ पुत्र राम हैं ऑर एक देशिय होकर भी वह सभी जीवों के मन में वास करते हैं ऑर सर्व व्यापक हैं तथा काल से व सभी तत्वों से परे हैं।
प्रमाण - जब काकभुसुंडि बालक राम के मुख से उनके उदर में जा पहुंचते है तो उन्हें अगणित ब्रह्मांड दिखाई देते हैं प्रत्येक ब्रह्मांड में कई वर्षों तक रहते है फिर भी राम के उदर का अंत नहीं मिलता।यहां वह अपने ईश्वरीय ज्ञान से उन्हें अवगत कराते हैं।
जबकि कबीर के राम जनम मरण रहित हैं,वह अरूप हैं ,सगुण और निर्गुण से परे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वह दशरथ पुत्र राम नहीं हैं ,वह व्यापक हैं।।विशेष - गहराई से उनकी बानी को समझने पर ज्ञात हो जाता है कि वह सतलोक अर्थात अयोध्या लोक में दिव्य सिंहासन पर सत्य पुरुष रूप में विराजमान हैं।
परंतु विद्वानों ने उनकी भाषा को ठीक से पढ़ने का प्रयास नहीं किया ऑर उनके दिव्य लोक को तो नकार ही दिया।
मुझे तो एक ही अंतर समझ आता है कि कबीर दास के ईश्वर दशरथ पुत्र राम नहीं है वह जन्म मरण से रहित है जबकि तुलसी के ईश्वर दशरथ पुत्र राम हैं।।
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