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श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 15 , श्लोक 17 में वर्णित उत्तम पुरुष कौन है?, वास्तविक परमेश्वर कौन है?

 यह सम्पूर्ण रहस्य ज्ञान महेश्वर तंत्र में आया है।

एक बार बैकुंठ में भगवान विष्णु अकेले बैठे थे बुद्धि की सहायता से मन और इन्द्रियों का नियमन कर उन ईश्वर ने कुछ ध्यान किया उनके नेत्रों में अश्रु आ गये और शरीर पुलकित हो गया । सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुईं लक्ष्मी जी वहीं थी

हरि भगवान को इस तरह ध्यान में तल्लीन देखकर लक्ष्मी जी को बहुत आश्चर्य हुआ 

वह सोचने लगीं

यह त्रिलोकीनाथ होकर भी भला किसका ध्यान कर रहे हैं?

मेरे विचार से हमसे बढ़ कर इस लोक में अन्य कोई ध्यान करने योग्य नहीं है। ब्रह्मा और शंकर के भी जो देव कारण हैं तथा  जिसके २४ अवतारों का गान नारद आदि महर्षि गण किया करते हैं।

जिनके समान इस लोक में कोई नहीं है फिर अधिक कैसे होगा 

और जिनके पलक उठाने से सृष्टि और पलक गिराने मात्र से प्रलय हो जाता है।

अहो ! वही ये विष्णु किसका ध्यान कर रहे हैं?

संदेह में पड़ी हुई लक्ष्मी जी से एक सखी ने कहा - सारे देवगण ,ब्रह्मा, शंकर  ऋषि महर्षि आदि सभी इन भगवान का पूजन करते हैं । अतः तीनों लोकों में श्रेष्ठ हरि भगवान का कोई अन्य पूजनीय नहीं हो सकता।

अपनी प्रेयसी और प्राणबल्लभा तुम्हारा ही ध्यान प्रभु कर रहे हैं

देवी तुम धन्य हो जो सर्वेश्वर तुम्हारा ध्यान करते हैं।

लक्ष्मी जी सखी के भाव समझ गई और उन्होंने उस सखी से कहा- तुम्हारा इस प्रकार का कथन व्यर्थ है देवताओं के ईश ध्यान मार्ग में कभी भी मेरा स्मरण नहीं करते। 

वह अपने प्राण से प्यारे भक्तों को छोड़कर भला मेरा ध्यान क्यों करने लगे?

इसलिए वे न तो मेरा, न ब्रह्मा , रुद्र अथवा शंकर का ही ध्यान कर रहे हैं अपितु अपने भक्त का ही ध्यान कर रहे हैं।

फिर इनके चित्त में कौन ईश्वर निहित है,इस बात को कौन जान सकता है?अतः इनके जगने पर अवश्य ही इस रहस्य को पूछ लूंगी।


 हरि भगवान के ध्यान से जगने पर लक्ष्मी जी ने उनके चरण स्पर्श कर कहा--हे ईश्वर! हे शरणागत वत्सल!हे पृथ्वी के पालक ! हे जगन्नाथ! मेरे मन में  एक संदेह है,उसका निवारण करिए।

वस्तुत: तुम्हीं लोकों के सृष्टिकर्ता ,पालनकर्ता और संहारकर्ता हो।

नाथ! तुम देवों के भी देव हो, तुम्हारे समान या तुमसे अधिक और कोई नहीं है।

फिर आप एकांत में मन और इन्द्रियों को वश में करके किसका ध्यान करते हैं? वह कौन है जिसके ध्यान में आप आनंद अतिरेक से अत्यंत रोमांचगत हो जाते हैं।

भगवन! इस विषय में मेरा मन अशांत हो रहा है अतः मुझसे कहिए।तब श्री भगवान गम्भीर वाणी में वोले- हे कल्याणी! मैं तुमसे कहता हूं तुम ध्यान से सुनो।

मैं साक्षात रूप से इस लोक का गुरु है मेरे लिए कोई भी ध्यान के योग्य नहीं है। ब्रह्मा, रूद्र एवं इंद्र से वंदित मैं ही अखिल विश्व का आधार एवं आत्मा हूं।। मुझ में ही संपूर्ण चराचर जगत फैला हुआ है तुम उसे देखो, मुझमें ही तुम संपूर्ण विश्व को देख सकती हो। फिर तुम और क्या जानना चाहती हो।

देवी ! तुम मेरी आद्य एवं सनातनी शक्ति हो। जब मैं तुम्हें नहीं देखता हूं तो सारा जगत अंधकार मय दिखाई देता है।

तुम्हें देख लेने पर मैं अच्छी तरह से देखने लगता हूं । जब तुम सखियों के साथ फूल तोड़ने गई तो मैं तुम्हारा  विरह  ना सह सका

तब मैंने एकाग्र चित्त से तुम्हारा ध्यान किया तभी तुम आ गयीं ।

मैं तुमसे अधिक क्या कहूं तुम मेरे लिए प्राणों से बढ़कर हो। 

श्री लक्ष्मी जी ने कहा- भगवन!

आपके प्रसाद से मैं सभी के ह्रदय में हुई चेष्टाओं को कर्मानुसार और रुचि अनुसार जानती हूं।

हे माधव! विरह होने पर भी मैं आपके ह्रदय में ध्यान की गई। मैं तो आप में ही निवास करती हूं मैं आपके अंतः करण की दृष्टा हूं। हे प्रभु तुम्हारे ह्रदय में रहकर भी मुझे यह विचित्र सा लग रहा है कि आपके अंतः करण की बात मैं अपनी बुद्धि से नहीं जानती हूं।

तुम्हारे अत्यंत प्यारे भक्त छोड़ने के योग्य नहीं है। भक्तों को छोड़कर इस लोक में आप  दूसरे का ध्यान अथवा भजन क्यों करेंगे? तीनों लोक में यदि दुर्गति युक्त भक्त का आप ध्यान करते हैं तो आपकी इच्छा मात्र से उसका सभी कष्ट कट जाता है।

इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि आपसे अन्य कोई आपका ईश्वर है जिसका आप ध्यान करते हैं।हे देवेश! यदि मैं आपकी प्रिया हूं तो आप उन्हें बताबें। मेरा आपके अलावा कोई और ईश्वर नहीं है

अतः मेरा मन कौतूहल युक्त हो उसे जानने की इच्छा करता है।

श्री विष्णु ने कहा- देवी! तुम्हें और कुतूहल नहीं करना चाहिए मैंने जो कहा है उसे ही सत्य मानकर आश्चर्य न करें।

फिर इस बिषय में विद्वान और साधुजन भी आग्रह नहीं करते।

देवी जो न देने योग्य है वह परम तत्व है कारण कि वह इस लोक से परे की वस्तु है अतः अपने दुराग्रह का त्याग करके प्रसन्न मन से देवी तुम्हें  मेरे प्रसाद की इच्छा से मेरा अनुवर्तन करना चाहिए।

श्री भगवान के ऐसा कहने पर लक्ष्मी जी को बहुत बुरा लगा,उनका गला भर आया और वह फूट-फूट कर रोने लगीं।

स्त्री और पुरुष का शरीर विद्वानों द्वारा एक ही कहा गया है तो आप मुझे एक अलग शरीर के रूप में क्यों देख रहे हैं? नाथ!

आपने प्रेम की रीति को भुला दिया है ।

पति के ह्रदय में जिस स्त्री के लिए प्रेम न हो उसके जीवन को धिक्कार है। फिर वह पति भी शठ है जो अपनी सती साध्वी स्त्री की उपेक्षा करता है।

अतः अल्प पुन्य वाली मैं कैसे अपने अभीष्ट को प्राप्त करुंगी

सो जब तक आप प्रभु प्रसन्न नहीं हो जाते तब तक मैं कठोर तप करूंगी।

अब देवी ने हरि भगवान के बारम्बार चरणों को स्पर्श किया और उनकी प्रदक्षिणा कर वैकुंठ धाम से कहीं और चली गईं।

केतुमाल पर्वत पर जाकर लक्ष्मी जी ने बड़ा कठोर तप किया,तप करते हुए हजारों वर्ष व्यतीत हो गये तब देवी के विग्रह से अग्नि उत्पन्न हो सारी त्रिलोकी को जलाने लगी।

इससे दुखी हो कर इंद्र, वरुण, अग्नि , आदित्य और रुद्र आदि देवगण ब्रह्मा जी के पास जाकर इसका कारण पूछने लगे।

तब ब्रह्मा जी ने उन सबको वैकुंठ धाम में घटित घटना को बताया (रमा देवी साक्षात अपने पति विष्णु देव से अपमानित होकर तप कर रही हैं हे देव आप अपने से भी श्रेष्ठ किस तत्व का ध्यान कर रहे हैं?यह पूछने पर विष्णु जी ने उस तत्व को नहीं कहा ।तब दुखी मन से वह केतुमाल पर्वत पर कठोर तप कर रही हैं  तुम सब चिंता न करो हम विष्णु से इस बिषय में चर्चा करेंगे। इसके बाद ब्रह्मा , इंद्र ,बरुण आदि भगवान शंकर के साथ वैकुंठ धाम में गये

और वहां विष्णु जी से सब बातें कहीं।

फिर ब्रह्मा जी, महादेव और श्री हरि  तीनों ही केतुमाल पर्वत पर  आए। निकट आकर लक्ष्मी जी से विष्णु जी ने कहा - देवी प्राणप्रिए! तुम व्यर्थ क्यों तपस्या कर रही हो।इस तपस्या से निवृत्त हो । यहां फल की अपेक्षा तप में परिश्रम बहुत अधिक है

कारण कि सत्पुरुष अल्प फल हेतु बहुत परिश्रम वाले कर्म नहीं करते।तब देवी ने आंखें खोली और सामने हरि भगवान को देखा उनके साथ ही ब्रह्मा और शंकर भगवान भी थे।

 देवी ने श्री विष्णु देव के चरणों में गिर कर प्रणाम किया।

श्रीभगवान ने कहा- देवी तुम धन्य हो धन्य हो वस्तुत: साध्वी स्त्री धर्म परायण पुरुष का आधा अंग है। विष्णु देव ने अपनी प्रिया लक्ष्मी जी से चर्चा करते हुए कहा देवी मैं आपके तप से संतुष्ट हूं तुम्हारा कल्याण होवे । तुम्हें तप करते हुए पूरे सात कल्प व्यतीत हो गये।कहा यह कोमल शरीर और कहां इतना कठोर तप।

तुम्हारा यह श्रम व्यर्थ है। कठोर तप से अपने शरीर को मत सुखाओ मैं तुम्हारे चरणों में सिर से बार-२ प्रणाम करता हूं।

तुम एकांत में क्या सोच रहे हो यह जो तुमने मुझसे पूछा था उसे कोटि कोटि कल्पों में किसी नहीं कहना चाहिए। फिर भी तुम उसे जान लो कारण कि इसके लिए तुमने तप किया है।

साक्षात वाणी से इसे नहीं बोलना चाहिए। तथापि सुंदरी तुम सुनो मैं उसके प्रकार को कहूंगा।

२८ वें द्वापर के अंत जब धरती पर असुर अथवा दुष्ट लोग गाय, ब्राह्मण एवं स्त्री को कष्ट पहुंचाएंगे एवं वेद मार्ग नष्ट करने का प्रयास करेंगे तब धर्म की स्थापना तथा दुष्टों के नाश हेतु मैं महाराज ययाति के कुल में वसुदेव के पुत्र रुप में कृष्ण नाम से विख्यात होऊंगा।

वहां भी तुम मेरे स्त्रियों में श्रेष्ठ  रुक्मणि नाम से मेरी पत्नी होगी।

वहां पर कुछ अज्ञानी असुर तुमसे विवाह करना चाहेंगे तब उन सबको जीतकर मैं तुमसे विवाह कर लूंगा , इसमें कोई संदेह नहीं है।तब हे सुंदरी वहां की पतिव्रता साध्वी स्त्रियां मंगल गान हेतु मेरे चरित्रों का गान करेंगी।

उस पूजन अर्चन को सुनकर मेरा ह्रदय उसी प्रकार प्रसन्न होगा जिस तरह चंद्र देव के उदय होने पर समुद्र प्रसन्न होता है।

अतः इधर उधर की वाणी बोलना तुम्हारे लिए ठीक नहीं है।

तुम स्वयं उस आनंद का अनुभव करोगी।

उस आनंद समुद्र का एक कण भी ब्रह्मा आदि को प्राप्त नहीं होता फिर अन्य प्राणियों की बात ही क्या है।

आनंद वह है इस प्रकार उसका वर्णन नहीं किया जा सकता यह शब्दों में नहीं कहा जा सकता।यह केबल अनुभव की वस्तु है फिर भी तुम इसके लक्षण सुनो।

जब ह्रदय में ब्रह्मानन्द हो तब बाहरी जगत की विस्मृती हो जाती है, नेत्रों से अश्रु धारा बहने लगती है,शरीर पुलकित हो उठता है, कंपकपी होने लगती है और पसीना भी निकलने लगता है।

इस प्रकार के लक्षण से युक्त वह आनंद मेरे अंतर मन में स्थित है।

जब तुम मेरे समान ध्यान करोगी तब तुम्हें इसकी प्राप्ति होगी।

अतः हे प्रिय उस समय का पालन करो।

यह आनंद समस्त श्रुति का रहस्य है, इसमें संदेह करना व्यर्थ है।


विष्णु देव के मुख यह सुनकर लक्ष्मी जी ने शोक संताप त्याग दिया और खुशी मन से हरि चरणों में प्रणाम किया।

देवता पुष्प वर्षा करने लगे और ढोल नगाड़ों से आकाश गूंज उठा 

ब्रह्मा और शंकर भगवान भी गदगद मन हो निज धाम को गये।

श्री विष्णु लक्ष्मी देवी के साथ वैकुंठ पधारे।

महेश्वर तंत्र में श्री हरि के ईश्वर श्रीकृष्ण के दिव्य धाम ब्रह्मपुर का वर्णन आया है

यह अमृत सागर के मध्य रत्न द्वीप में स्थित ब्रह्मपुर धाम है यहां कालिंदी नदी बहती है इस नदी के एक ओर तो अक्षर ब्रह्म का धाम है और दूसरी तरफ कृष्ण का निज धाम (ब्रह्मपुर)

यह यमुना नदी पुखराज (रत्न गिरि) पर्वत  से निकल कर कृष्ण महल के सामने से बहती हुई महासमर में मिल जाती है।नदी के तट दिव्य रत्न मय हैं। श्री कृष्ण के धाम में मुख्य १२००० सखियां हैं इसके अलावा वहां १८००० विमान तथा अमृत सागर में कयी पोत हैं जो ध्वजा चिन्हों से युक्त हैं। श्री कृष्ण महल के चारों और वृंदावन बगीचा है उसके सामने यमुना नदी फिर अक्षर धाम तथा इस भूमि के चारों तरफ भांति -२ के समुद्र हैं।(अमृत सागर)


अक्षर ब्रह्म असंख्य ब्रह्माण्ड बनाते और नाश करते हैं फिर भी वह निर्विकार, निर्गुण और इच्छा रहित हैं।

एक बार श्री कृष्ण ने अपनी सखियों को अक्षर ब्रह्म (सामने के महल में रहते हैं) के बारे में बताया कि यह प्रभु ब्रह्माण्ड बनाते ब नष्ट करते हैं।

तब उन सखियों ने उस ब्रह्माण्ड में दुख दर्शन की इच्छा जताई परन्तु श्री कृष्ण ने उन्हें समझाया कि यहां सुख ही सुख है अर्थात आनंद समुद्र हैं और वहां दुख ही दुख है।

तुम वहां जाओगी तो मुझे भूल जाओगी यह सम्भव नहीं है कि तुम मुझे भी याद रखो और संसार देखो।

तब उन कृष्ण प्रियाओं ने कहा कि भगवान्! हमने कभी उन लीलाओं को अनुभव नहीं किया और फिर बिना दुख अनुभव के सुख का महत्व नहीं समझ आता अतः नाथ आप हमारी इच्छा पूरी करें।

तब श्री भगवान ने उनकी वह इच्छा स्वीकार कर ली।

उन पुरुषोत्तम भगवान और सखियों की आत्माएं ब्रज में उत्पन्न हुई।

श्रीकृष्ण नंद पुत्र हुए और उन सखियों में प्रमुख श्यामा जी(श्रीकृष्ण का अर्ध अंग ) वृषभानु की पुत्री राधा हुईं।अक्षर ब्रह्म ने भी उत्तम पुरुष श्रीकृष्ण की लीला देखने की इच्छा व्यक्त की थी और कृष्ण सखियों की दुख दर्शन की लालसा थी। अतः स्वयं मूल परमेश्वर को इस भूमण्डल पर आना पड़ा।।

यह सम्पूर्ण रहस्य ज्ञान लक्ष्मी द्वारा बार-२ पूछने पर भी श्रीहरि द्वारा नहीं कहा गया ।

भगवान शंकर को भी ५००० वर्षों तक समाधि में रहना पड़े तब भगवान ईश्वर की कृपा से उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ

और स्वयं ईश्वर को भी भगवान सदाशिव ने साक्षात यह ज्ञान दिया।

यह परम तत्व है।।

(महेश्वर तंत्र में वर्णित है)

श्रीकृष्ण की त्रिधा लीला

११ वर्ष ५२ दिन तक अक्षरातीत परमेश्वर की लीला है

उसके बाद श्वेतद्वीप अधिपति तथा वैकुंठ नाथ की लीला है।

क्षर पुरुष श्री नारायण को कहा गया है,अक्षर का और परम तत्व  इसमें वर्णन है।


 

























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