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पूर्ण परमात्मा कौन है?, परमेश्वर कौन है?,who is god?, परमेश्वर किसे माना जाए?,

 प्रभु भक्तों को नमस्कार।।

Pooran parmatma kon hai?



आज का प्रश्न है कि पूर्ण परमात्मा कौन है (who is perfect god)

चलिए हम प्रमाण सहित बताते हैं कि परमेश्वर कौन है?

श्रीकृष्ण ही एकमात्र पूर्ण परमात्मा हैं ,उन जैसा भौतिक और आध्यात्मिक जगत में भी कोई परमेश्वर नहीं है।

हरिवंश पुराण , विष्णु पर्व अध्याय -११०

एक समय धरती के बड़े-२ राजा द्वारिका में कृष्ण से मिलने पधारे और सभी जब यथा आसनों पर बैठ गए तब वहां नारद जी प्रकट हुए

 नारद मुनि ने उन नरेशों के मध्‍य भाग में प्रवेश करके सिंहासन पर बैठे हुए अविनाशी यदुश्रेष्ठ से इस प्रकार कहा- 'महाबाहो! बड़े आश्चर्य की बात है, अवश्‍य ही देवताओं में एकमात्र आप ही पुरुषोत्तम हैं और आप ही धन्‍य हैं, संसार में दूसरा कोई ऐसा नहीं है।'

तब श्रीकृष्ण मुसकराकर नारद मुनि से बोले- 'मैं दक्षिणाओं के साथ आश्चर्य एवं धन्‍य हूँ।'


 भगवान के ऐसा कहने पर मुनिश्रेष्ठ नारद उन राजाओं के बीच में इस प्रकार बोले- 'श्रीकृष्ण! मुझे अपनी बात का पूरा उत्तर मिल गया, अब मैं जैसे आया था वैसे ही लौट जाऊंगा।' 


उन्‍हें जाते देख उन नारद जी के कहे हुए गूढ़ मन्‍त्ररूपी वाक्‍य का तात्‍पर्य न जानने वाले राजाओं ने भगवान से कहा- 'माधव! नारद जी ने आपके विषय में आश्चर्य और धन्य कहा है और आपने 'दक्षिणाओं के साथ’ ऐसा कहकर नारद जी को उनकी बात का उत्तर दे दिया है, यह सब हो जाने पर भी हम यही नहीं समझ सके कि यह क्या है? इस दिव्य एवं महान मन्त्रपद का तात्पर्य क्या है? श्रीकृष्ण! यदि यह सुनाने योग्‍य हो तो हम लोग यथार्थ रूप से इसका रहस्य सुनना चाहते हैं।' तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन समस्त भूपाल शिरोमणियों से कहा- 'राजाओं! यदि तुम्हें इसका तात्पर्य सुनना है तो ये विप्रवर नारद जी ही आपके समक्ष पूर्वोक्त वचनों की व्याख्या करेंगे।'


 ऐसा कहकर वे नारद जी से बोले- 'नारद जी! आपने जो बात कही और मैंने जो उसका उत्तर दिया, उसका यथार्थ रहस्य ये राजा लोग सुनना चाहते हैं, अत: आप इन्हें बताइये।' 



तब वे सुन्दर सुवर्णमय पीठ पर जमकर बैठ गये। वे सुन्दर अलंकारों से अलंकृत भी थे, उन्होंने उन वन्दनीय प्रभु प्रभाव का वर्णन इस प्रकार आरम्भ किया। नारद जी बाले- 'नृपवरों! आप लोग जितनी संख्या में यहाँ पधारें हैं, वे सुनें, मैं इन परम महान श्रीकृष्ण की महिमा के पार कैसे पहुँचा, यह बता रहा हूँ। किसी समय मैं गंगा जी के तट पर तीनों समय स्‍नान करने वाले अतिथि के रूप में अकेला ही विचरता था। एक दिन जब रात बीत चुकी थी और सूर्यदेव दिखायी देने लगे थे, मैंने एक कछुआ देखा, जो पर्वत के शिखर के समान प्रतीत होता था। उसका शरीर दो कपालों के संयोग से बना था। उसका मण्डलाकार विस्तार एक कोस का था, लम्बाई इससे दूनी थी। उसके चार पैर थे। वह नानी से भीगा और कीचड़ में सना हुआ था। उसकी आकृति मेरी वीणा के समान थी। उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो हाथी के चमड़े का ढेर लगा हो। मैंने उस जलचर जन्तु को हाथ से छूकर उससे कहा- कूर्म! तुम्हार शरीर आश्चर्यजनक है। मेरे मत में तुम धन्य हो। क्योंकि तुम दो अभेद्य कपालों से आवृत रहकर दूसरे किसी की परवाह न रखते हुए पानी में नि:शंक विचरते हो। तब उस जलचर कछुए ने स्वयं ही मनुष्य की-सी बोली में मुझ से कहा- मुने! मुझमें क्या आश्चर्य है? प्रभो! मैं कैसे धन्य हूँ। ब्रह्मन! धन्य तो ये गंगा नदी हैं। इनसे बढ़कर आश्‍चर्य की वस्तु और क्या है? जिनके भीतर मुझ-जैसे हजारों जलजन्तु विचरते है।



 तब मैं कौतूहलवश गंगा नदी के निकट गया और बोला- सरिताओं में श्रेष्ठ गंगे! तुम धन्य हो और सदा आश्चर्य से विभूषित रहती हो, क्योंकि ऐसे-ऐसे विशालकाय हिंसक जन्तु तुम्हारी शोभा बढ़ाते हैं, तुम अनेकानेक कुण्डों से युक्त हो और कितने ही तापसों के आश्रमों की रक्षा करती हुई समुद्र तक जाती हो। मेरे इस तरह कहने पर गंगा जी अपने दिव्य रूप से प्रकट होकर मुझ देव गन्धर्व जातीय तथा इन्द्र के प्रिय मित्र नारद नामक ब्राह्मण से यों बोलीं।

देवगन्धर्व! ऐसा न कहो, न कहो। युद्ध और कलह के प्रेमी द्विजश्रेष्ठ! मैं न तो धन्य हूँ और न आश्चर्यजनक जन्तुओं से सुशोभित ही। आप सत्यपरायण महर्षि का यह वचन मेरे प्रति बाधित हो रहा है। ब्रह्मन्! संसार में पूर्णत: आश्चर्यकारक और धन्य तो एक मात्र समुद्र ही है, जिसमें मुझ जैसी सैकड़ों विस्तृत नदियां जाकर मिलती हैं। 


गंगा जी का उक्त वचन सुनकर मैं महासागर के तट पर गया और बोला- महार्णव! तुम समस्त लोकों में आश्चर्यमय और धन्य हो, क्योंकि तुम जल की योनि और स्वामी हो। जल बहाने वाली जो ये लोकपावन और विश्ववन्दित नदियां पत्‍नी भाव से तुम्हारे समीप जाती हैं, यह सब उचित ही है। मेरे ऐसा कहने पर पवनप्रेरित समुद्र अपनी अगाध जलराशि का भेदन करके उठ खड़ा हुआ और मुझसे इस प्रकार बोला- देवगन्धर्व! आप ऐसा न कहें! न कहें! द्विजश्रेष्ठ! मैं ऐसा आश्चर्यरूप नहीं हूँ। मुने! धन्य तो यह वसुधा है, जिसके ऊपर मैं स्थित हूँ। संसार में पृथ्वी के सिवा उससे बढ़कर आश्चर्य की वस्तु दूसरी कौन है?



 समुद्र के कहने से मैं पृथ्वी पर खड़ा हुआ और कौतूहलयुक्त होकर जगत की आधार-स्वरूपा पृथ्वी से बोला- धरिणी! तू समस्त देहधारियों की योनि है, अत: शोभने! तू निश्चय ही धन्य है। महती क्षमा से संयुक्त होने के कारण तू सम्पूर्ण भूतों में आश्चर्यरूप है। अत: निश्चय ही तू समस्त प्राणियों को धारण करने वाली और मनुष्यों का उत्पत्ति-स्थान है। तुझसे ही क्षमाभाव प्रकट हुआ है। आकाशचारियों का कर्म भी तुझ से ही सिद्ध होता है। मेरे द्वारा कहे गये प्रशंसासूचक वचन से पृथ्वी उत्तेजित-सी हो उठी। उसने अपनी सहज धीरता छोड़ दी और प्रत्यक्ष होकर मुझसे कहा- युद्ध और कलह से प्रेम रखने वाले देवगन्धर्व! ऐसी बात न कहो! न कहो! न तो मैं धन्य हूँ और न आश्चर्यरूप ही हूँ। मुझमें जो धीरता दिखायी देती है, यह मेरी नहीं दूसरों की है। द्विजश्रेष्ठ! ये पर्वत धन्य हैं, जो मुझे धारण करते हैं। ये ही आश्चर्यरूप देखे जाते हैं तथा ये ही जगत की स्थिति के हेतु हैं।



 पृथ्वी के इस कथन से प्रभावित होकर मैं पर्वतों के यहाँ उपस्थित हुआ और बोला- भूधरों! तुम धन्य हो। तुममें बहुत-सी आश्चर्य की बातें दिखायी देती हैं। सुवर्ण, श्रेष्ठ रत्न और विशेषत: धातुओं के उत्पत्ति स्थान होने के कारण तुम सब आश्चर्य कहलाते हो। इस भूतल पर तुम सब ही सदा बने रहते हो। मेरी यह बात सुनकर स्थावर पदार्थों में श्रेष्ठ पर्वत, जो वनों से सुशोभित होते हैं, मुझसे सान्त्वनायुक्त वचन बोले- ब्रह्मर्षे! न तो हम धन्य हैं और न हमारे पास आश्चर्यजनक वस्तुएं ही हैं। प्रजापति ब्रह्माजी धन्य हैं, देवताओं में भी वे ही सम्पूर्ण आश्चर्यों से युक्त हैं। 


तब मैंने ब्रह्म लोक में जाकर ब्रह्मा जी को प्रणाम किया एवं स्तुति करने के बाद उनसे कहा- भगवन! एक मात्र आप ही आश्चर्यमय हैं, आप ही सम्पूर्ण जगत के गुरु एवं धन्य हैं।

 मैं दूसरे किसी भूत को ऐसा नहीं देखता, जो आपके समान हो। सम्पूर्ण चराचर जगत आप से ही उत्पन्न हुआ है। सर्वदेवेश्वर! संसार में भूत और इन्द्रियमय जो देवता, दानव और मनुष्य आदि प्राणी देखे जाते हैं, वे सब आप से ही उत्पन्न होते हैं, इस सम्पूर्ण जगत को देखकर यही निश्चय होता है। इसलिये आप अवश्य ही देवताओं के सनातन देवाधिदेव हैं, क्योंकि आप ही उनके स्रष्टा हैं और आप ही समस्त लोकों के आदिकरण हैं।

 तब लोक पितामह भगवान ब्रह्मा ने मुझसे कहा- नारद! धन्य और आश्चर्य के विवेचन से सम्बन्ध रखने वाले वचनों द्वारा मेरे विषय में क्या कहते हो? नारद! सबसे महान् आश्चर्य तो वेद हैं, वे ही धन्य भी हैं, क्योंकि वे तत्त्वार्थदर्शी वेद सम्पूर्ण लोकों को धारण करते हैं। विप्रवर! ऋक्, साम और यजुर्वेद का जो सत्य है तथा अर्थववेद में जो सत्य माना गया है, उसी को स्वरूप समझो। वेदों ने मुझे धारण कर रखा है और मैंने वेदों को।


 अब मैंने वेदों से कहा- आप लोग धन्य हैं, पवित्र हैं और सदा आश्चर्य से विभूषित रहते हैं। ब्राह्मणों के आधार भी आप ही हैं, ऐसा प्रजापति का कथन हैं। आप लोगों के विषय में स्वयम्भू ब्रह्माजी का भी यही निर्णय है कि आप लोग सबसे श्रेष्ठ हैं। श्रुति अथवा तपस्या के द्वारा भी आप लोगों से बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। तब चारों वेदों ने मेरे सब ओर खड़े होकर इस प्रकार उत्तर दिया- नारद! परमात्मा के उद्देश्य से किये जाने वाले यज्ञ ही आश्चर्य और धन्य हैं। नारद! परमात्मा ने यज्ञ के लिये ही हमें प्रकट किया हैं, अत: यज्ञ ही हमसे उत्कृष्ट है। हम अपने वश में नहीं हैं, स्वयम्‍भू ब्रह्मा से उत्कृष्ट वेद हैं और वेदों से उत्कृष्ट यज्ञ हैं।



 तब मैंने वेदों की वाणी से पुरस्कृत हुए यज्ञों से कहा- यज्ञों! तुम लोगों में सबसे उत्कृष्ट तेज दिखायी देता है। ब्रह्माजी ने जो बात कही है और वेदों ने जिस प्रकार प्रतिपादन किया है, उसके अनुसार इस जगत में आप लोगों के सिवा दूसरी कोई आश्चर्य की वस्तु नहीं ज्ञात होती है। आप लोग धन्य हैं, जो द्विजातियों के वंशज हैं। आप लोगों से तर्पित होने पर त्रिविध अग्नियों को तृप्ति प्राप्त होती है। यज्ञों में ही सब देवता अपने भागों से ओर महर्षिगण मन्त्रों से तृप्त होते हैं। मेरे ऐसा कहने के वाद यूपरूपी ध्वज से सुशोभित समस्त अग्रिष्टोम आदि यज्ञ खड़े होकर मुझ से बोले- मुने! यह आश्चर्य अथवा धन्य शब्द हम लोगों के लिये उपयुक्त नहीं है। भगवान विष्णु ही परम आश्चर्य रूप हैं, क्योंकि वे ही हमारी परमगति हैं।


अग्‍नि में होमे गये जिस पावन आज्य-भाग का हम लोग आस्वादन करते हैं, वह सब विश्वरूप कमलनयन भगवान विष्णु में प्रदान करते हैं।


 अतः मैं भगवान विष्णु की गति प्राप्त करने के लिये यहाँ इस पृथ्वी पर आया हूँ। यहाँ आप राजाओं से घिरे हुए भगवान श्रीकृष्ण का मैंने दर्शन किया है। राजाओं! मैंने जो श्रीकृष्‍ण के विषय में यह कहा है कि ‘जनार्दन! तुम आश्चर्यरूप और धन्य हो’ वे ही यहाँ आप लोगों के बीच में विराजमान हैं। इन्होंने आज मेरी इस बात का जो उत्तर दिया है कि दक्षिणाओं के सहित मैं आश्चर्य एवं धन्य हूँ),

 यह मेरे प्रश्न का पर्याप्त उत्तर प्राप्त हो गया। क्योंकि दक्षिणाओं सहित विष्णु ही सब यज्ञों के आश्रय हैं, इसलिये ‘दक्षिणाओं सहित’ इतना कह देने पर मेरा प्रश्न समाप्त हो गया। पहले कच्छप ने धन्यता का प्रतिपादन आरम्भ किया था, फिर परम्परा से यहाँ इन दक्षिणा सहित परमपुरुष श्रीकृष्ण में उसका समापन हुआ है, अत: कौन धन्य है, इस बात का उत्तर प्राप्त हो गया। आप लोग जो मेरे पूर्वोक्त कथन का निश्चित तात्पर्य पूछ रहे थे, उसके विषय में यह सब कुछ मैंने बता दिया। अत: मैं जैसे आया था, वैसे ही जा रहा हूँ।' नारद जी के स्वर्गलोक को चले जाने पर वे समस्त भूपाल विस्मित होकर सेना और सवारियों सहित अपने राष्ट्रों को चले गये।

Pooran parmatma kon hai ?

यह स्पष्ट हो गया है।

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