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नारद मुनि ने परब्रह्म परमेश्वर का दीदार किया, परमेश्वर को कैसे पाया जा सकता है?

 नारद मुनि ने परब्रह्म परमेश्वर का दीदार कैसे किया?

श्री मद्भागवत पुराण सभी पुराणों में श्रेष्ठ क्यों माना जाता है?,

यद्यपि भागवत के अलावा ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह कथा दी है।

नोट- ब्रह्म वैवर्त पुराण में लिखा है नारद मुनि ने देखा कि दिव्य लोक में रत्न निर्मित सिंहासन पर परमेश्वर बैठे हुए हैं, सुंदर श्यामल विग्रह पर पीताम्बर है, कानों में कुण्डल, मस्तिष्क पर दिव्य मुकुट और चेहरे पर मुस्कान है।गले में दिव्य आभूषण और वनमाला है।

हाथ में वंशीधारण किए हैं। 

 सरस्वती के तट पर महामुनि वेदव्यास अपने आश्रम में बैठे हुए थे।

महाभारत की रचना करने के बहाने उन्होंने वेदों का अर्थ खोल दिया था तथा उसमें सभी धर्म आदि पुरुषार्थों का वर्णन किया 

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन और साधुओं का आदर सत्कार किया था

इतना सब करने के बाद भी वह बड़े दुखी थे। ऋषि अपने आपको अपूर्णकाम- सा जान रहे थे।

तब वहां नारद मुनि प्रकट हुए, वेदव्यास जी ने उनका स्वागत किया।अब नारद मुनि ने कहा- हे ऋषिवर !आप स्वस्थ तो हैं, मुझे आप दुखी दिखाई दे रहे हैं। आपने जो महाभारत की रचना की है,वह बड़ी अद्भुत है तथा आपने ब्रह्म तत्व को भी खूब विचारा है और जान भी लिया है

फिर भी आप दुखी हो , इसका क्या कारण है?


व्यास जी ने कह- आपने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। वैसा होने पर भी मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है। पता नहीं, इसका क्या कारण है। आपका ज्ञान अगाध है। आप साक्षात् ब्रह्मा जी के मानसपुत्र हैं। इसलिये मैं आपसे ही इसका कारण पूछता हूँ। नारद जी! आप समस्त गोपनीय रहस्यों को जानते हैं; क्योंकि आपने उन पुराणपुरुष की उपासना की है, जो प्रकृति-पुरुष दोनों के स्वामी हैं और असंग रहते हुए ही अपने संकल्पमात्र से गुणों के द्वारा संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं। आप सूर्य की भाँति तीनों लोकों में भ्रमण करते रहते हैं और योगबल से प्राण वायु के समान सबके भीतर रहकर अन्तःकरणों के साक्षी भी हैं। योगानुष्ठान और नियमों के द्वारा परब्रह्म और शब्दब्रह्म दोनों की पूर्ण प्राप्ति कर लेने पर भी मुझमें जो बड़ी कमी है, उसे आप कृपा करके बतलाइये।

नारद जी ने कहा- व्यास जी! आपने भगवान के निर्मल यश का गान प्रायः नहीं किया। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधुरा है। आपने धर्म आदि पुरुषार्थों का जैसा निरूपण किया है, भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वैसा निरूपण नहीं किया। जिस वाणी से- चाहे वह रस-भाव-अलंकारादि से युक्त ही क्यों न हो- जगत् को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता, वह तो कौओं के लिये उच्छिष्ट फेंकने के स्थान के समान अपवित्र मानी जाती हैं।प्रेमी भक्तजन कभी इसका आदर नहीं करते, इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो दूषित शब्दों से युक्त भी है, परन्तु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान के सुयश सूचक नामों से युक्त है, वह वाणी लोगों के सारे पापों का नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणी का श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं। वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात् साधन है, यदि भगवान की भक्ति से रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। 

व्यास जी! आपकी दृष्टि अमोघ है। आपकी कीर्ति पवित्र है। आप सत्यनारायण एवं दृढ़व्रत हैं। इसलिये अब आप सम्पूर्ण जीवों को बन्धन से मुक्त करने के लिये समाधि के द्वारा अचिन्त्य-शक्ति भगवान की लीलाओं का स्मरण कीजिये। जो मनुष्य भगवान की लीला के अतिरिक्त और कुछ कहने की इच्छा करता है, वह उस इच्छा से ही निर्मित अनेक नाम और रूपों के चक्कर में पड़ जाता है। उसकी बुद्धि भेदभाव से भर जाती है। जैसे हवा के झकोरों से डगमगाती हुई डोंगी को कहीं भी ठहरने का ठौर नहीं मिलता, वैसे ही उसकी चंचल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती


व्यास जी! जो भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का सेवक है, वह भजन न करने वाले कर्मी मनुष्यों के समान दैवात् कभी बुरा भाव हो जाने पर भी जन्म-मृत्युमय संसार में नहीं आता। वह भगवान के चरणकमलों के आलिंगन का स्मरण करके फिर उसे छोड़ना नहीं चाहता; उसे रस का चसका जो लोग चुका है। जिनसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं, वे भगवान ही इस विश्व के रूप में भी हैं। ऐसा होने पर भी वे इससे विलक्षण हैं। इस बात को आप स्वयं जानते हैं, तथापि मैंने आपको संकेतमात्र कर दिया है। व्यास जी! आपकी दृष्टि अमोघ है; आप इस बात को जानिये कि आप पुरुषोत्तम-भगवान के कलावतार हैं। आपने अजन्मा होकर भी जगत् के कल्याण के लिये जन्म ग्रहण किया है। इसलिये आप विशेष रूप से भगवान की लीलाओं का कीर्तन कीजिये। विद्वानों ने इस बात का निरूपण किया है कि मनुष्य की तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान, स्वाध्याय, ज्ञान और दान का एकमात्र प्रयोजन यही है कि पुण्यकीर्ति श्रीकृष्ण के गुणों और लीलाओं का वर्णन किया जाये।


पिछले कल्प में अपने पूर्वजीवन में मैं वेदवादी ब्राह्मणों की एक दासी का लड़का था। वे योगी वर्षा ऋतु में एक स्थान पर चातुर्मास्य कर रहे थे। बचपन में ही मैं उनकी सेवा में नियुक्त कर दिया गया था। मैं यद्यपि बालक था, फिर भी किसी प्रकार की चंचलता नहीं करता था, जितेन्द्रिय था, खेल-कूद से दूर रहता था और आज्ञानुसार उनकी सेवा करता था। मैं बोलता भी बहुत कम था। मेरे इस शील-स्वभाव को देखकर समदर्शी मुनियों ने मुझ सेवक पर अत्यन्त अनुग्रह किया। उनकी अनुमति प्राप्त करके बरतनों में लगा हुआ प्रसाद मैं एक बार खा लिया करता था। इससे मेरे सारे पाप धुल गये। इस प्रकार उनकी सेवा करते-करते मेरा हृदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन-पूजन करते थे, उसी में मेरी भी रुचि हो गयी। प्यारे व्यास जी! उस सत्संग में उन लीलागान परायण महात्माओं के अनुग्रह से मैं प्रतिदिन श्रीकृष्ण की मनोहर कथाएँ सुना करता था। श्रद्धापूर्वक एक-एक पद श्रवण करते-करते प्रियकीर्ति भगवान में मेरी रुचि हो गयी।

महामुने! जब भगवान में मेरी रुचि हो गयी, तब उन मनोहर कीर्ति प्रभु में मेरी बुद्धि भी निश्चल हो गयी। उस बुद्धि से मैं इस सम्पूर्ण सत् और असत्-रूप जगत् को अपने परब्रह्म स्वरूप आत्मा में माया से कल्पित देखने लगा। इस प्रकार शरद् और वर्षा- इन दो ऋतुओं में तीनों समय उन महात्मा मुनियों ने श्रीहरि के निर्मल यश का संकीर्तन किया और मैं प्रेम से प्रत्येक बात सुनता रहा। अब चित्त के रजोगुण और तमोगुण के नाश करने वाली भक्ति का मेरे हृदय में प्रादुर्भाव हो गया। मैं उनका बड़ा ही अनुरागी था, विनयी था; उन लोगों की सेवा से मेरे पाप नष्ट हो चुके थे। मेरे हृदय में श्रद्धा थी, इन्द्रियों में संयम था एवं शरीर, वाणी और मन से मैं उनका आज्ञाकारी था। उन दीनवत्स महात्माओं ने जाते समय कृपा करके मुझे उस गुह्तम ज्ञान का उपदेश किया, जिसका उपदेश स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से किया है। उस उपदेश से ही जगत् के निर्माता भगवान श्रीकृष्ण की माया के प्रभाव को मैं जान सका, जिसके जान लेने पर उनके परमपद की प्राप्ति हो जाती है।


 उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी। मैं अपनी माँ का एकलौता लड़का था। एक तो वह स्त्री थी, दूसरे मूढ़ और तीसरे दासी थी। मुझे भी उसके सिवा और कोई सहारा नहीं था। उसने अपने को मेरे स्नेहपाश से जकड़ रखा था। वह मेरे योगक्षेम की चिन्ता तो बहुत करती थी, परन्तु पराधीन होने के कारण कुछ कर नहीं पाती थी। जैसे कठपुतली नचाने वाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन है। मैं भी अपनी माँ के स्नेहबन्धन में बँधकर उस ब्राह्मण-बस्ती में ही रहा। मेरी अवस्था केवल पाँच वर्ष की थी; मुझे दिशा, देश और काल के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञान नहीं था।

 

एक दिन की बात है, मेरी माँ गौ दुहने के लिये रात के समय घर से बाहर निकली। रास्ते में उसके पैर से साँप छू गया, उसने उस बेचारी को डस लिया। उस साँप का क्या दोष, काल की ऐसी ही प्रेरणा थी। मैंने समझा, भक्तों का मंगल चाहने वाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है। इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा। चलते-चलते मेरा शरीर और इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं। मुझे बड़े जोर की प्यास लगी, भूखा तो था ही। वहाँ एक नदी मिली। उसके कुण्ड में मैंने स्नान, जलपान और आचमन किया। इससे मेरी थकावट मिट गयी। उस वन में एक पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया। उन महात्माओं से जैसा मैंने सुना था, हृदय में रहने वाले परमात्मा के उसी स्वरूप का मैं मन-ही-मन ध्यान करने लगा। 

प्रेम से मेरे नेत्रों में आँसू छलछला आये और हृदय में धीरे-धीरे भगवान प्रकट हो गये, उस समय प्रेमभाव के अत्यन्त उद्रेक से मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा। हृदय अत्यन्त शान्त और शीतल हो गया। उस आनन्द की बाढ़ में मैं ऐसा डूब गया कि मुझे अपना और ध्येय वस्तु का तनिक भी भान न रहा। भगवान का वह अनिर्वचीय रूप समस्त शोकों का नाश करने वाला और मन के लिये अत्यन्त लुभावना था। सहसा उसे न देख मैं बहुत ही विकल हो गया और अनमना-सा होकर आसन से उठा खड़ा हुआ।


मैंने उस स्वरूप का दर्शन फिर करना चाहा; किन्तु मन को हृदय में समाहित करके बार-बार दर्शन की चेष्टा करने पर भी मैं उसे नहीं देख सका। मैं अतृप्त के समान आतुर हो उठा।

श्रीकृष्ण ने कहा- ‘खेद है कि इस जन्म में तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे। जिनकी वासनाएँ पूर्णतया शान्त नहीं हो गयीं हैं, उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। निष्पाप बालक! तुम्हारे हृदय में मुझे प्राप्त करने की लालसा जाग्रत् करने के लिये ही मैंने एक बार तुम्हें अपने रूप की झलक दिखायी है। मुझे प्राप्त करने की आकांशा से युक्त साधक धीरे-धीरे हृदय की सम्पूर्ण वासनाओं का भलीभाँति त्याग कर देता है। अल्पकालीन संत सेवा से ही तुम्हारी चित्तवृत्ति मुझमें स्थिर हो गयी है। अब तुम इस प्राकृत मलिन शरीर को छोड़कर मेरे पार्षद हो जाओगे। मुझे प्राप्त करने का तुम्हारा यह दृढ़ निश्चय कभी किसी प्रकार नहीं टूटेगा। समस्त सृष्टि का प्रलय हो जाने पर भी मेरी कृपा से तुम्हें मेरी स्मृति बनी रहेगी’।

आकाश के समान अव्यक्त सर्वशक्तिमान् महान् परमात्मा इतना कहकर चुप ही रहे। उनकी इस कृपा का अनुभव करके मैंने उन श्रेष्ठों से भी श्रेष्ठतर भगवान को सिर झुकाकर प्रणाम किया। तभी से मैं लज्जा-संकोच छोड़कर भगवान के अत्यन्त रहस्यमय और मंगलमय मधुर नामों और लीलाओं का कीर्तन और स्मरण करने लगा। स्पृहा और मद-मत्सर मेरे हृदय से पहले ही निवृत्त हो चुके थे, अब मैं आनन्द से काल की प्रतीक्षा करता हुआ पृथ्वी पर विचरने लगा।


व्यास जी! इस प्रकार भगवान की कृपा से मेरा हृदय शुद्ध हो गया, आसक्ति मिट गयी और मैं श्रीकृष्ण परायण हो गया। कुछ समय बाद, जैसे एकाएक बिजली कौंध जाती है, वैसे ही समय पर मेरी मृत्यु आ गयी। मुझे शुद्ध भगवत्पार्षद-शरीर प्राप्त होने का अवसर आने पर प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाने के कारण पांच भौतिक शरीर नष्ट हो गया। कल्प के अन्त में जिस समय भगवान नारायण एकार्णव (प्रलयकालीन समुद्र) के जल में शयन करते हैं, उस समय उनके हृदय में शयन करने की इच्छा से इस सारी सृष्टि को समेटकर ब्रह्माजी जब प्रवेश करने लगे, तब उनके श्वास के साथ मैं ही उनके हृदय में प्रवेश कर गया।चतुर्युगी बीत जाने पर जब ब्रह्मा जगे और उन्होंने सृष्टि करने की इच्छा की, तब उनकी इन्द्रियों से मरीचि आदि ऋषियों के साथ मैं भी प्रकट हो गया। तभी से मैं भगवान की कृपा से वैकुण्ठादि में और तीनों लोकों में बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करता हूँ। मेरे जीवन का व्रत भगवद्भजन अखण्ड रूप से चलता रहता है। भगवान की दी हुई इस स्वर ब्रह्म से विभूषित वीणा पर तान छेड़कर मैं उनकी लीलाओं का गान करता हुआ सारे संसार में विचरता हूँ। जब मैं उनकी लीलाओं का गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु, जिनके चरणकमल सभी तीर्थों के उद्गम स्थान हैं 

वह मुझे दर्शन दिया करते हैं।

इस प्रकार नारद मुनि व्यास जी पर कृपा करके वहां से अंतर्ध्यान हो गए।

यहां लेख समाप्त किया जाता है।

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