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त्रिपाद विभूति श्री नारायण ने ही सम्पूर्ण विश्व का निर्माण किया था

 ((यह सम्पूर्ण रहस्यमय ज्ञान  न केवल श्रीमद्भागवत पुराण बल्कि अन्य पुराणों में वर्णित है))

विशेष- पद्म पुराण में वर्णन है कि  दिव्य वैकुंठ स्थित अयोध्या नगरी में श्रीराम-नारायण परमेश्वर से महामाया और प्रकृति ने विश्व निर्माण हेतु  प्रार्थना की थी। 


उन्होंने कहा था (महामाया और प्रकृति)- हे केशव! इन जीवों के लिए लोक और शरीर प्रदान कीजिए। हे सर्वज्ञ! पूर्व कल्पों की तरह अपनी लीलामय विभूतियों का विस्तार कीजिए। जड़ -चेतनमय सम्पूर्ण चराचर जगत अज्ञान अवस्था में पड़ा है।आप लीला विस्तार के लिए इस पर दृष्टिपात करें।

मेरे तथा प्रकृति के साथ जगत की सृष्टि कीजिए।

तब परमेश्वर ने प्रकृति के भीतर जगत की सृष्टि आरम्भ की तब श्रीहरि ने प्रकृति से महत् तत्व को प्रकट किया और महत तत्व से त्रिविध अहंकार उत्पन्न हुआ 

अहंकार से ही मन,इंद्रियां तथा उनके अधिष्ठाता देवता, सूक्ष्म तन्मात्रा और पंच भूत -यह सभी क्रम से उत्पन्न हुए।

सभी तत्वों को श्री राम- नारायण ने  मिला दिया था और विश्व ब्रह्माण्ड की सृष्टि की।)


महानारायण उपनिषद- में भी त्रिपाद विभूति के अंतर्गत आनंद पाद के मध्य दिव्य वैकुंठ धाम में स्थित महानारायण से ही यह सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति कहीं है।

महानारायण से स्थूल महाविराट प्रकट होता है और उसके रोमकूपों में असंख्य ब्रह्माण्ड स्थित हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में राम-नारायण ही विराट पुरुष श्रीनारायण के रुप में प्रकट होकर लीला करते हैं अर्थात उनसे ही ब्रह्मा प्रकट होते हैं और सृष्टि रचना करते हैं।

विराट पुरुष श्रीनारायण से ही विष्णु प्रकट होते हैं।


ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार कारणवारि में स्थित महाविष्णु ही प्रत्येक ब्रह्माण्ड में विराट पुरुष श्रीनारायण रुप से प्रकट  होते हैं

और उनसे ब्रह्मा, विष्णु आदि प्रकट होते हैं।



श्रीमद्भागवत महापुराण ----


सृष्टि रचना से पूर्व समस्त आत्माओं के आत्मा एकमात्र पूर्ण परमात्मा ही थे न दृष्टा था और न दृश्य।

वही दृष्टा होकर देखने लगे परन्तु उन्हें कोई दृश्य दिखाई न पड़ा

क्योंकि उस समय केवल वही अद्वितीय रुप से प्रकाशित हो रहे थे।ऐसी अवस्था में वह खुद को असत समझ रहे थे परन्तु वह असत नहीं थे क्योंकि उनकी शक्तियां सोई हुई थी उनके ज्ञान का लोप नहीं हुआ था।यह दृष्टा और दृश्य का अनुसंधान करने वाली शक्ति ही कार्य-कारण रुप माया है।

इस भावाभावरुप माया से ही श्रीभगवान ने इस विश्व का निर्माण किया है।कालशक्ति से यह गुणमयी माया क्षोभित हुई

तब उन इंद्रियातीत चिन्मय परमात्मा ने अपने अंश पुरुष रुप से उसमें चिदाभास रुप बीज स्थापित किया।

तब काल की प्रेरणा से उस माया से महत् तत्व प्रकट हुआ-यह तत्व माया,काल और पुरुष के अधीन  तथा मिथ्या अज्ञान का नाशक था। परमेश्वर की दृष्टि पड़ने से महत् तत्व ने विश्व की रचना हेतु अपना रुपांतर किया।


महत्तत्त्व के विकृत होने पर अहंकार की उत्पत्ति हुई- जो कार्य (अधिभूत), कारण (अध्यात्म) और कर्ता (अधिदैव) रूप होने के कारण भूत, इन्द्रिय और मन का कारण है। वह अहंकार वैकारिक (सात्त्विक), तैजस (राजस) और तामस- भेद से तीन प्रकार का है; अतः अहंतत्त्व के विकार होने पर वैकारिक अहंकार से मन और जिनसे विषयों का ज्ञान होता है, वे इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता हुए। तैजस अहंकार से सूक्ष्म भूतों का कारण शब्द-तन्मात्र हुआ और उससे दृष्टान्तरूप से आत्मा का बोध कराने वाला आकाश उत्पन्न हुआ। भगवान् की दृष्टि जब आकाश पर पड़ी, तब उससे फिर काल, माया और चिदाभास के योग से स्पर्श तन्मात्र हुआ और उसके विकृत होने पर उससे वायु की उत्पत्ति हुई। अत्यन्त बलवान् वायु ने आकाश के सहित विकृत होकर रूप तन्मात्र की रचना की और उससे संसार का प्रकाशक तेज उत्पन्न हुआ। फिर परमात्मा की दृष्टि पड़ने पर वायुयुक्त तेज ने काल, माया और चिदंश के योग से विकृत होकर रसतन्मात्र के कार्य जल को उत्पन्न किया। तदनन्तर तेज से युक्त जल ने ब्रह्मा का दृष्टिपात होने पर काल, माया और चिदंश के योग से गन्धगुणमयी पृथ्वी को उत्पन्न किया।


इन आकाशादि भूतों में से जो-जो भूत पीछे-पीछे उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमशः अपने पूर्व-पूर्व भूतों के गुण भी अनुगत समझने चाहिये। ये महत्तत्त्वादि के अभिमानी विकार, विक्षेप और चेतनांश विशिष्ट देवगण श्रीभगवान् के ही अंश हैं, किन्तु पृथक्-पृथक् रहने के कारण जब वे विश्व रचनारूप अपने कार्य में सफल नहीं हुए, तब हाथ जोड़कर भगवान् से कहने लगे।


देवताओं ने कहा- देव! हम आपके चरण-कमलों की वन्दना करते हैं। ये अपनी शरण में आये हुए जीवों का ताप दूर करने के लिये छत्र के समान हैं तथा इनका आश्रय लेने से यतिजन अनन्त संसार दुःख को सुगमता से ही दूर फेंक देते हैं। जगत्कर्ता जगदीश्वर! इस संसार में तापत्रय से व्याकुल रहने के कारण जीवों को जरा भी शान्ति नहीं मिलती। इसलिये भगवन्! हम आपके चरणों की ज्ञानमयी छाया का आश्रय लेते हैं। मुनिजन एकान्त स्थान में रहकर आपके मुखकमल का आश्रय लेने वाले वेदमन्त्ररूप पक्षियों के द्वारा जिनका अनुसन्धान करते रहते हैं तथा जो सम्पूर्ण पापनाशिनी नदियों में श्रेष्ठ श्रीगंगा जी के उद्गम स्थान हैं, आपके उन परम पावन पादपद्मों का हम आश्रय लेते हैं। हम आपके चरणकमलों की उस चौकी का आश्रय ग्रहण करते हैं, जिसे भक्तजन श्रद्धा और श्रवण-कीर्तनादि रूप भक्ति से परमार्जित अन्तःकरण में धारण करके वैराग्य पुष्ट ज्ञान के द्वारा परम धीर हो जाते हैं।! आप संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के लिये ही अवतार लेते हैं; अतः हम सब आपके उन चरणकमलों की शरण लेते हैं, जो अपना स्मरण करने वाले भक्तजनों को अभय कर देते हैं। जिन पुरुषों का देह, गेह तथा उनसे सम्बन्ध रखने वाले अन्य तुच्छ पदार्थों में अहंता, ममता का दृढ़ दुराग्रह है, उनके शरीर में (आपके अन्तर्यामी रूप से) रहने पर भी जो अत्यन्त दूर हैं; उन्हीं आपके चरणारविन्दों को हम भजते हैं। परम यशस्वी परमेश्वर! इन्द्रियों के विषयाभिमुख रहने के कारण जिनका मन सर्वदा बाहर ही भटका करता है, वे पामर लोग आपके विलासपूर्ण पादविन्यास की शोभा के विशेषज्ञ भक्तजनों के दर्शन नहीं कर पाते; इसी से वे आपके चरणों से दूर रहते हैं।



सर्वशक्तिमान भगवान ने जब देखा कि आपस में संगठित न होने के कारण ये मेरी महत्तत्त्व आदि शक्तियाँ विश्व रचना के कार्य में असमर्थ हो रही हैं, तब वे काल शक्ति को स्वीकार करके एक साथ ही महत्तत्त्व, अहंकार, पंचभूत, पंचतन्मात्रा और मन सहित ग्यारह इन्द्रियाँ- इन तेईस तत्त्वों के समुदाय में प्रविष्ट हो गये। उसमें प्रविष्ट होकर उन्होंने जीवों के सोये हुए अदृष्ट को जाग्रत् किया और परस्पर विलग हुए। उस तत्त्व समूह को अपनी क्रिया शक्ति के द्वारा आपस में मिला दिया। इस प्रकार जब भगवान् ने अदृष्ट को कार्योन्मुख किया, तब उस तेईस तत्त्वों के समूह ने भगवान् की प्रेरणा से अपने अंशों द्वारा अधिपुरुष-विराट् को उत्पन्न किया। अर्थात् जब भगवान् ने अंशरूप से अपने उस शरीर में प्रवेश किया, तब वह विश्व रचना करने वाला महत्तत्त्वादि समुदाय एक-दूसरे से मिलकर परिणाम को प्राप्त हुआ। यह तत्त्वों का परिणाम हो विराट् पुरुष है, जिसमें चराचर जगत् विद्यमान है।



जल के भीतर जो अण्डरूप आश्रय स्थान था, उसमें वह हिरण्यमय विराट् पुरुष सम्पूर्ण जीवों को साथ लेकर एक हजार दिव्य वर्षों तक रहा। वह विश्व रचना करने वाले तत्त्वों का गर्भ (कार्य) था तथा ज्ञान, क्रिया और आत्मशक्ति से सम्पन्न था। इन शक्तियों से उसने स्वयं अपने क्रमशः एक (हृदय रूप), दस (प्राण रूप) और तीन (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक) विभाग किये। यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव रूप होने के कारण समस्त जीवों का आत्मा, जीवरूप होने के कारण परमात्मा का अंश और प्रथम अभिव्यक्त होने के कारण भगवान् का आदि अवतार है। यह सम्पूर्ण भूतसमुदाय इसी में प्रकाशित होता है। यह अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव रूप से तीन प्रकार का, प्राणरूप से दस प्रकार का और हृदयरूप से एक प्रकार का है।

फिर विश्व की रचना करने वाले महत्तत्त्वादि के अधिपति श्रीभगवान ने उनकी प्रार्थना को स्मरण कर उनकी वृत्तियों को जगाने के लिये अपने चेतनरूप तेज से उस विराट् पुरुष को प्रकाशित किया, उसे जगाया। उसके जाग्रत् होते ही देवताओं के लिये कितने स्थान प्रकट हुए-यह मैं बतलाता हूँ, सुनो।


विराट् पुरुष के पहले मुख प्रकट हुआ; उसमें लोकपाल अग्नि अपने अंश वागिन्द्रिय के समेत प्रविष्ट हो गया, जिससे यह जीव बोलता है। फिर विराट् पुरुष के तालु उत्पन्न हुआ; उसमें लोकपाल वरुण अपने अंश रसनेन्द्रिय के सहित स्थित हुआ, जिससे जीव रस ग्रहण करता। इसके पश्चात् उस विराट् पुरुष के नथुने प्रकट हुए; उसमें दोनों अश्विनीकुमार अपने अंश घ्राणेन्द्रिय के सहित प्रविष्ट हुए, जिससे जीव गन्ध ग्रहण करता है। इसी प्रकार जब उस विराट् देह में आँखें प्रकट हुईं, तब उनमें अपने अंश नेत्रेन्द्रिय के सहित-लोकपति सूर्य ने प्रवेश किया, जिस नेत्रेन्द्रिय से पुरुष विविध रूपों का ज्ञान होता है। फिर उस विराट् विग्रह में त्वचा उत्पन्न हुई; उसमें अपने अंश त्वगिन्द्रिय से जीव स्पर्श का अनुभव करता है। जब इसके कर्णछिद्र प्रकट हुए, तब उसमें अपने अंश श्रवणेन्द्रिय के सहित दिशाओं ने प्रवेश किया, जिस श्रवणेन्द्रिय से जीव को शब्द का ज्ञान होता है।



फिर विराट् शरीर में चर्म उत्पन्न हुआ; उसमें अपने अंश रोमों के सहित ओषधियाँ स्थित हुईं, जिन रोमों से जीव खुजली आदि का अनुभव करता है। अब उसके लिंग उत्पन्न हुआ। अपने इस आश्रय में प्रजापति ने अपने अंश वीर्य के सहित प्रवेश किया, जिससे जीव आनन्द का अनुभव करता है। फिर विराट् के गुदा प्रकट हुई; उसमें लोकपाल मित्र ने अपने अंश पायु-इन्द्रिय के सहित प्रवेश किया, इससे जीव मल त्याग करता है। इसके पश्चात् उसके हाथ प्रकट हुए; उनमें अपनी ग्रहण-त्यागरूपा शक्ति के सहित देवराज इन्द्र ने प्रवेश किया, इस शक्ति से जीव अपनी जीविका प्राप्त करता है।

जब इसके चरण उत्पन्न हुए, तब उनमें अपनी शक्ति गति के सहित लोकेश्वर विष्णु ने प्रवेश किया। इस गति शक्ति द्वारा जीव अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचता है। फिर इसके बुद्धि उत्पन्न हुई; अपने इस स्थान में अपने अंश बुद्धिशक्ति के साथ वाक्पति ब्रह्मा ने प्रवेश किया, इस बुद्धिशक्ति से जीव ज्ञातव्य विषयों को जान सकता है। फिर इसमें हृदय प्रकट हुआ; उसमें अपने अंश मन के सहित चन्द्रमा स्थित हुआ। इस मनःशक्ति के द्वारा जीव संकल्प-विकल्पादि रूप विकारों को प्राप्त होता है। तत्पश्चात् विराट् पूरुष में अहंकार उत्पन्न हुआ; इस अपने आश्रय में क्रियाशती सहित अभिमान (रुद्र) ने प्रवेश किया। इससे जीव अपने कर्तव्य को स्वीकार करता है। अब इसमें चित्त प्रकट हुआ। उसमें चित्तशक्ति के सहित महत्तत्त्व (ब्रह्मा) स्थित हुआ; इस चित्तशक्ति से जीव विज्ञान (चेतना) को उपलब्ध करता है। इस विराट् पुरुष के सिर से स्वर्गलोक, पैरों से पृथ्वी और नाभि से अन्तरिक्ष (आकाश) उत्पन्न हुआ। इनमें क्रमशः सत्त्व, रज और तम- इन तीन गुणों के परिणामरूप देवता, मनुष्य और प्रेतादि देखे जाते हैं। इनमें देवता लोग सत्त्वगुण की अधिकता के कारण स्वर्गलोक में, मनुष्य और उनके उपयोगी गौ आदि जीव रजोगुण की प्रधानता के कारण पृथ्वी में तथा तमोगुणी स्वभाव वाले होने से रुद्र के पार्षदगण (भूत, प्रेम आदि) दोनों के बीच में स्थित भगवान् के नाभि स्थानीय अन्तरिक्ष लोक में रहते हैं।



वेद और ब्राह्मण भगवान् के मुख से प्रकट हुए। मुख से प्रकट होने के कारण ही ब्राह्मण सब वर्णों में श्रेष्ठ और सबका गुरु है। उनकी भुजाओं से क्षत्रियवृत्ति और उसका अवलम्बन करने वाला क्षत्रिय वर्ण उत्पन्न हुआ, जो विराट् भगवान् का अंश होने के कारण जन्म लेकर सब वर्णों की चोर आदि के उपद्रवों से रक्षा करता है। भगवान् की दोनों जाँघों से सब लोगों का निर्वाह करने वाली वैश्यवृत्ति उत्पन्न हुई और उन्हीं से वैश्य वर्ण का भी प्रादुर्भाव हुआ। यह वर्ण अपनी वृत्ति से सब जीवों की जीविका चलाता है। फिर सब धर्मों की सिद्धि के लिये भगवान् के चरणों से सेवावृत्ति प्रकट हुई और उन्हीं से पहले-पहल उस वृत्ति का अधिकारी शूद्र वर्ण भी प्रकट हुआ, जिसकी वृत्ति से ही श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं।ये चारों वर्ण अपनी-अपनी वृत्तियों के सहित जिनसे उत्पन्न हुए हैं, उन अपने गुरु श्रीहरि का अपने-अपने धर्मों से चित्त शुद्धि के लिये श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं।



 

यह विराट् पुरुष काल, कर्म और स्वभाव शक्ति से युक्त भगवान् की योगमाया के प्रभाव को प्रकट करने वाला है। इसके स्वरूप का पूरा-पूरा वर्णन करने का कौन साहस कर सकता है। तथापि प्यारे विदुर जी! अन्य व्यावहारिक चर्चाओं से अपवित्र हुई अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये, जैसी मेरी बुद्धि है और जैसा मैंने गुरुमुख से सुना है वैसा, श्रीहरि का सुयश वर्णन करता हूँ।



 

महापुरुषों का मत है कि पुण्यश्लोकशिरोमणि श्रीहरि के गुणों का गान करना ही मनुष्यों की वाणी का तथा विद्वानों के मुख से भगवत्कथामृत का पान करना ही उनके कानों का सबसे बड़ा लाभ है।


वत्स! हम ही नहीं, आदिकवि श्रीब्रह्मा जी ने एक हजार दिव्य वर्षों तक अपनी योग परिपक्व बुद्धि से विचार किया; तो भी क्या वे भगवान् की अमित महिमा का पार पा सके? अतः भगवान् की माया बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित कर देने वाली है। उसकी चक्कर में डालने वाली चाल अनन्त है; अतएव स्वयं भगवान् भी उसकी थाह नहीं लगा सकते, फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। जहाँ न पहुँचकर मन के सहित वाणी भी लौट आती है तथा जिनका पार पाने में अहंकार के अभिमानी रुद्र तथा अन्य इन्द्रियाधिष्ठाता देवता भी समर्थ नहीं हैं, उन श्रीभगवान् को हम नमस्कार करते हैं।



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