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जय श्री कृष्ण।।
श्री भगवान ने युद्ध प्रारंभ होने के टाइम कुरूक्षेत्र की भूमी पर अर्जुन को दिव्य गीता ज्ञान दिया था।
ब्रह्म कुमारी संस्था श्री कृष्ण को गीता ज्ञान दाता नहीं मानती
इसके अलावा रामपाल का मानना है कि श्री कृष्ण के सरीर में काल ब्रह्म ने प्रवेश कर अर्जुन को गीता ज्ञान दिया। ये श्री कृष्ण को पूर्ण परमात्मा मानना तो दूर की बात है,उन्हें गीता ज्ञान दाता ही नहीं मानते।
हिन्दू धर्म में सभी को अपने विचारों को ब्यक्त करने की आजादी है,इसी का फायदा उठाकर यह लोग हिन्दू जनमानस को उनके भगवान श्री कृष्ण से दूर ले जा रहे हैं।
जबकि श्रीमद्भागवत पुराण में उन्हें स्वयम श्री भगवान के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके अलावा गर्ग संहिता,ब्रह्म वैवर्त पुराण, पद्म पुराण, उपनिषद आदि और वेदों में भी तात्पर्य रूप से उन्ही को परमेश्वर माना गया है। वैदिक साहित्य में श्री कृष्ण और उनके अंशो की ही महिमा गाई गई है। काशी में
शिव जी अपने भक्तों को राम मंत्र देकर मुक्ति प्रदान करते हैं
प्रमाण अगस्त संहिता आदि।
श्री श्री ब्रह्म संहिता में
_"ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्द: विग्रह:,_ _अनादिरादि गोविन्द: सर्व कारण कारणम:।"_ (ब्रह्म संहिता ५.१) __भगवान तो कृष्ण है, जो सच्चिदानन्द (शास्वत,ज्ञान तथा आनन्द के) स्वरुप है | उनका कोई आदि नहीं है , क्योकि वे प्रत्येक वस्तु के आदि है | वे समस्त कारणों के कारण है | ब्रह्मा जी कहते है: जो वेणु बजाने में दक्ष है, खिले कमल की पंखुड़ियों जैसे जिनके नेत्र है, जिनका मस्तिक मोर पंख से आभूषित है, जिनके अंग नीले बादलों जैसे सुन्दर है, जिनकी विशेष शोभा करोड़ों काम देवों को भी लुभाती है, उन आदिपुरुष गोविन्द का मैं भजन करता हूँ । *(ब्रह्म संहिता ५.३०)
वे आगे कहते है: "मै उन आदि भगवान गोविंद की पूजा करता हूँ, जो अपने विविध पूर्ण अंशो से विविध रूपों तथा भगवान राम आदि अवतारों के रूप में प्रकट होते है किन्तु जो भगवान कृष्ण के अपने मूल रूप में स्वयं प्रकट होते है |" *(ब्रह्म संहिता ५.३९)
भगवान श्री कृष्ण के तीन पुरुष अवतार
सर्व प्रथम कारणोदक्षायी विष्णु (महाविष्णु) जिनके उदर में समस्त ब्रह्माण्ड हैं तथा प्रत्येक श्वास चक्र के साथ ब्रह्माण्ड प्रकट तथा विनिष्ट होते रहते है ।
दूसरा अवतार है; गर्भोदक्षायी विष्णु जो प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट करके उसमें जीवन प्रदान करते हैं तथा जिनके नाभि-कमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए।
तीसरे अवतार है क्षीरोदक्षायी विष्णु जो परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में तथा सृष्टि के प्रत्येक अणु में उपस्थित हो कर सृष्टिका पालन करते है
गर्ग संहिता के अनुसार - देवर्षि नारदजी मिथिला के राजा बहुलश्वा को संबोधित कर कहते हैं।
इस वाराहकल्प में धराधाम पर जो भगवान श्रीकृष्ण का पदार्पण हुआ है और यहाँ उनकी जो-जो लीलाएँ हुई हैं, वह सब मैं तुमसे कहता हूँ; सुनो ! बहुत पहले की बात है,आसुर स्वभाव के मनुष्य और दुष्ट राजाओं के भारी भार से अत्यंत पीडित हो, धरती गौ का रूप धारण करके, अनाथ की भाँति रोती-बिलखती हुई अपनी आंतरिक व्यथा निवेदन करने के लिये ब्रह्माजी की शरण में गयी। उस समय उसका शरीर काँप रहा था। वहाँ उसकी कष्ट कथा सुनकर ब्रह्माजी ने उसे धीरज बँधाया और तत्काल समस्त देवताओं तथा शिवजी को साथ लेकर वे भगवान नारायण के वैकुण्ठधाम में गये। वहाँ जाकर ब्रह्माजी ने चतुर्भुज भगवान को प्रणाम करके अपना सारा अभिप्राय निवेदन किया। तब लक्ष्मीपति उन उद्विग्न देवताओं तथा ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले। श्रीभगवान ने कहा- ब्रह्मन ! साक्षात श्री कृष्ण स्वामी, परमेश्वर, अखण्ड स्वरूप तथा देवातीत हैं। उनकी लीलाएँ अनंत एवं अनिर्वचनीय हैं। उनकी कृपा के बिना यह कार्य कदापि सिद्ध नहीं होगा, अत: तुम उन्हीं के अविनाशी एवं परम उज्ज्वल धाम में शीघ्र जाओ।
श्रीब्रह्माजी बोले- प्रभो ! आपके अतिरिक्त कोई दूसरा भी परिपूर्णतम तत्त्व है, यह मैं नहीं जानता। यदि कोई दूसरा भी आपसे उत्कृष्ट परमेश्वर है, तो उसके लोक का मुझे दर्शन कराइये।
श्रीनारदजी कहते हैं-ब्रह्माजी के इस प्रकार कहने पर परिपूर्णतम भगवान विष्णु ने सम्पूर्ण देवताओं सहित ब्रह्माजी को ब्रह्माण्ड शिखर पर विराजमान गोलोकधाम का मार्ग दिखलाया। वामनजी के पैर के बायें अँगूठे से ब्रह्माण्ड के शिरोभाग का भेदन हो जाने पर जो छिद्र हुआ, वह ‘ब्रह्मद्रव’ (नित्य अक्षय नीर) से परिपूर्ण था। सब देवताउसी मार्ग से वहाँ के लिये नियत जलयान द्वारा बाहर निकले। वहाँ ब्रह्माण्ड के ऊपर पहुँचकर उन सबने नीचे की ओर उस ब्रह्माण्ड को कलिंगबिम्ब (तूँबे) की भाँति देखा। इसके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से ब्रह्माण्ड उसी जल में इन्द्रायण-फल के सदृश इधर-उधर लहरों में लुढ़क रहे थे। यह देखकर सब देवताओं को विस्मय हुआ। वे चकित हो गये। वहाँ से करोड़ों योजन ऊपर आठ नगर मिले, जिनके चारों ओर दिव्य चहारदीवारी शोभा बढ़ा रही थी और झुंड़-के-झुंड़ रत्नादिमय वृक्षों से उन पुरियों की मनोरमा बढ़ गयी थी। वहीं ऊपर देवताओं ने विरजा नदी का सुन्दर तट देखा, जिससे विरजा की तरंगें टकरा रही थीं। वह तटप्रदेश उज्ज्वल रेशमी वस्त्र के समान शुभ्र दिखायी देता था।
दिव्य मणिमय सोपानों से वह अत्यंत उद्भासित हो रहा था। तट की शोभा देखते और आगे बढ़ते हुए वे देवता उस उत्तम नगर में पहुँचे, जो अनन्तकोटि सूर्यों की ज्योति का महान पुञ्ज जान पड़ता था। उसे देखकर देवताओं की आँखें चौंधिया गयी। वे उस तेज से पराभूत हो जहाँ-के-तहाँ खडे़ रह गये। तब भगवान विष्णु की आज्ञा के अनुसार उस तेज को प्रणाम करके ब्रह्माजी उसका ध्यान करने लगे। उसी ज्योति के भीतर उन्होंने एक परम शांतिमय साकार धाम देखा। उसमें परम अद्भुत, कमलनाल के समान धवल वर्ण हजार मुख वाले शेषनाग का दर्शन करके सभी देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया।
राजन ! उन शेषनाग की गोद में महान आलोकमय लोकवन्दित गोलोकधाम का दर्शन हुआ, जहाँ धामाभिमानी देवताओं के ईश्वर तथा गणनाशीलों में प्रधान कालका भी कोई वश नहीं चलता। वहाँ माया भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, सोलह विकार तथा महत्तत्त्व भी वहाँ प्रवेश नहीं कर सकते हैं; फिर तीनों गुणों के विषय में तो कहना ही क्या है ! वहाँ कामदेव के समान मनोहर रूप लावण्य शालिनी, श्यामसुन्दरविग्रहा श्रीकृष्णपार्षदा द्वारपाल का कार्य करती थी। देवताओं को द्वार के भीतर जाने के लिये उद्यत देख उन्होंने मना किया।
तब देवता बोले- हम सभी ब्रह्मा, विष्णु, शंकर नाम के लोकपाल और इन्द्र आदि देवता हैं। भगवान श्रीकृष्ण के दर्शनार्थ यहाँ आये हैं। श्रीनारदजी कहते हैं- देवताओं की बात सुनकर उन सखियों ने, जो श्रीकृष्ण की द्वारपालिकाएँ थीं, अंत:पुर में जाकर देवताओं की बात कह सुनायीं। तब तक सखी, जो शतचन्द्रानना नाम से विख्यात थी, जिसके वस्त्र पीले थे और जो हाथ में बेंत की छड़ी लिये थी, बाहर आयी और उनसे उनका अभीष्ट प्रयोजन पूछा।
शतचन्द्रानना बोली- यहाँ पधारे हुए आप सब देवता किस ब्रह्माण्ड के निवासी हैं, यह शीघ्र बताइये। तब मैं भगवान श्रीकृष्ण सूचित करने के लिये उनके पास जाऊँगी। देवताओं ने कहा- अहो! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है, क्या अन्यान्य ब्रह्माण्ड भी हैं ? हमने तो उन्हें कभी नहीं देखा। शुभे ! हम तो यही जानते हैं कि एक ही ब्रह्माण्ड है, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं
शतचंद्रा ने कहा- ब्रह्मदेव! यहां तो बिरजा नदी में करोड़ों करोड़ों ब्रह्मांड इधर उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें में भी आप जैसे देवता वास करते हैं।अरे!क्या आप लोग अपना नाम और ग्राम तक नहीं जानते।जान पड़ता है कभी यहां नहीं आए हो ,थोड़ी सी जानकारी से खिल उठते हो।
इस प्रकार उपहास के पात्र बने हुए उन देवताओं को देखकर श्री विष्णु भगवान बोले कि हम उस जगत से आए हैं जहां बामन भगवान का अवतार हुआ है। यह सुनकर उसने विष्णु भगवान की प्रशंसा की ,इसके बाद उन्हें गोलोक धाम में प्रवेश की अनुमति मिल गई।
उन्होंने वहां रास मंडल, यमुना नदी की सुंदरता, गोवर्धन पर्वत, वृंदावन आदि को देखा।
फिर भगवान के अंतपुर में राधा कृष्ण के दर्शन किए।
शेष जानकारी गर्ग संहिता में देखना चाहिए।
श्री गोपाल तापनि उपनिषद में -
एकमात्र सबको बश में रखने वाले सर्वव्यापी श्री कृष्णा सर्वथा स्तवन करने योग्य है। एक होते हुए भी अनेक रूपों में प्रकाशित हो रहे हैं। जो धीर भक्तजन पूर्व उक्त आसन पर विराजमान श्री भगवान का पूजन करते हैं उन्हीं को साश्वात सुख प्राप्त होताहै।
जो नित्यों के भी नित्य हैं,चेतनों के भी परम चेतन हैं।
और वह एक ही सबकी कामनाऐं पूर्ण करते हैं,उन भगवान कृष्ण को पूर्वोक्त पीठ में स्थापित करके जो धीर पुरुष निरन्तर उनका पूजन करते हैं ,उनको ही सनातन सिद्धि प्राप्त होती है,दूसरों को नहीं।
गीता में कहा गया है कि दो पुरुष हैं- क्षर एवं अक्षर । सभी प्राणी एवं पंचभूत आदि क्षर हैं तथा इनसे परे कूटस्थ अक्षर ब्रह्म कहे जाते हैं ।
इनसे भी परे जो उत्तम पुरुष अक्षरातीत हैं, एकमात्र वे ही परब्रह्म की शोभा को धारण करते हैं । (गीता १५/१६,१७)
कुछ लोग भ्रमवश प्रकृति को अक्षर कहते हैं । इस सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त कारण प्रकृति तो जड़ तथा नश्वर है, तो उसे अक्षर कैसे कह सकते हैं ? इसके अतिरिक्त, यदि प्रकृति अक्षर है, तो उसे पुरुष के रूप में वर्णित क्यों नहीं किया गया ?
कुछ लोग अज्ञानता के कारण जीव तथा नारायण को ही अक्षर कहते हैं । तथा दोनों महाप्रलय में अपने मूल स्वरूप में लीन हो जाते हैं
यह सम्पूर्ण साकार-निराकार जगत (प्रकृति, नारायण सहित
2. इससे परे तेजमयी, अविनाशी ब्रह्म अक्षर है।
3.अक्षर ब्रह्म(ब्रह्म वैवर्त पुराण,देवी भागवत में विराट पुरुष या अक्षर पुरुष को राधा कृष्ण का पुत्र बताया गया है,जिसके आधीन अनंत कोटि ब्रह्माण्ड हैं।) से भी परे पूर्ण ब्रह्म सच्चिदानंद श्री कृष्ण हैं जिनका लोक वृंदावन है।
पूर्ण ब्रह्म का स्वरूप निराकार (मोहतत्व), बेहद, अक्षर से भी परे है । मुण्कोपनिषद् में कहा गया है कि उस अनादि, अविनाशी, कूटस्थ अक्षर ब्रह्म से परे जो चिदघन स्वरूप है, उन्हें ही अक्षरातीतकहते हैं ।
अतिशय तेज (असंख्यों सूर्य) से प्रकाशमान, अति मनोहारिणी, यशोरूप तेज से चारों ओर से घिरी हुई, अति तेजस्विनी, किसी से भी न जीती गई उस ब्रह्मपुरी में ब्रह्म प्रवेश किए हुए हैं । (अथर्ववेद १०/२/३३)
आठ चक्रों और नवद्वारों से युक्त, अपने आनन्द स्वरूप वालों की, किसी से युद्ध के द्वारा विजय न की जाने वाली (अयोध्या) पुरी है । उसमें तेज स्वरूप कोश सुख स्वरूप है, जो ज्योति से ढका हुआ है (अथर्ववेद १०/२/३१) । यहाँ आठ चक्रों का तात्पर्य शरीर के आठ चक्रों से अथवा प्रकृति के आठ आवरणों से नहीं है क्योंकि यह तो नाशवान हैं, जबकि इस ब्रह्मपुरी को अमृत स्वरूप कहा गया है ।
यहां नव द्वारों से मतलब परमधाम की नौ प्रकार की भूमि से है।
सृष्टि रचना के पूर्व पूर्ण पुरुष भगवान नारायण ही थे। बे ही समस्त प्राणियों के मोक्ष दाता हैं। बे समस्त शक्तजनो में विशिष्ट हैं।वहीं सर्व शक्तिमान हैं।उन्होंने स्वयं को चार भागों में विभक्त किया,तीन अंशों या भागों से वे
परम धाम वैकुंठ में निवास करते हैं तथा चौथे अंश अनिरुद्ध नामक नारायण से यह सारा संसार रचा गया।।(मुद्गल उपनिषद)
इसके अलावा वेदसार उपनिषद में परमेश्वर साकेत या अमर्लोक के रहवासी हैं।
सदाशिव संहिता , शक संहिता में भी वही सतलोक के रहवासी श्री राम हैं।
यह श्री राम भी श्री कृष्ण के ही रूप हैं।
उनका यह लोक बिरजा नदी के अति परे वैकुंठ के मध्य स्थित माना जाता है। हमारे शास्त्र भगवान श्री कृष्ण को ही पूर्णब्रह्म मानते हैं परंतु हम लोग शास्त्र की बात ना मानकर अज्ञानी लोगों के बहकावे में आकर किसी काल्पनिक पुरुष को भगवान मानने लगते हैं जो कि गलत है
टिप्पणियाँ
हृदय आह्लादित है.
बिरजा सरिता का नाम मैं पहली बार जाना.
जीव का जब सम्पूर्ण मोक्ष हो जाता है तब गोलोक मे श्री कृष्ण उसे परम हंस रूप देके अयोध्या या साकेत के लिए गति प्रदान करते हैँ.. यहाँ नाम मम श्याम है वहां नाम मम राम. मेरा संशय इन ग्रंथो और कबीर नानक तुलसी जी के ज्ञान से दूर हो गया की हम सभी नित्य साकेत के प्रभु की प्रिय आत्माएं हैँ जो काल और माया के प्रभाव मे इन ब्रह्मांडो मे फंस गयी हैँ और मालिक का नाम अर्थात राम का नाम ही फंद छुड़ाएगा. नित्य प्रभु राम ने ही धाम धनीयों के रूप मे अपना विस्तार किया है ताकि प्रिय आत्माओ को इन रूपों से आकर्षित कर काल के जाल से निकाल के वापस धाम लें आए.. काल सत पुरुष अर्थात श्री राम नारायण का सोलह पुत्रो मे से एक है ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार इसी को कारणवासी महाविष्णु कहा है जिसके तप से प्रसन्न होके श्री कृष्ण ने उनको अनंत ब्रह्मांडो के सृजन का वर दिया और जीवो को माया आकर्षित करके इसी काल के देश मे लें आयी. इसी से त्रिगुण अर्थात ब्रह्मा विष्णु शिव पैदा हुए और जीवो को जन्म मरण के चक्र मे उलझा देते हैँ जब तक सत नाम की शरण नहीं जाता जीव तब तक इन त्रिगुणो से धोखा खाता रहेगा काल और माया ने चालाकी से इन त्रिगुणो को प्रभु के त्रिपादभूति सच्चिदानंद रुपों यानि महाब्रह्मा, महाविष्णु और सदाशिव के रूप मे ही बनाया और इन त्रिगुणो ने जीवो को भ्रम मे रखा है इसलिये कहीं भी गुरु ग्रन्थ साहेब मे, कबीर ग्रंथो मे या राम चरित मानस मे विष्णु और विष्णु अवतार राम, कृष्ण या शिव के नाशवान होने के बात आयी है तो कहीं परमेश्वर के चतुर्भुज, नीलमणि, कमल नयन सारंग पानी, मुरली धर कहके स्तुति की गयी है. इसका अर्थ परमात्मा के सच्चिदानंद रूपों का प्रतिभास रूप ही त्रिगुण धारण करते हैँ महामाया की इच्छा से इसलिये ब्रह्माण्ड मे सब माया और उसके रूप ही हैँ इसलिये कबीर माया को महाठगनी कह रहे हैँ तुलसीदास इसे बाघिन और पिशाचनी कह रहे हैँ. इससे केवल संत ही राम नाम देके बचा सकते हैँ अन्य कोई नहीं.
ज्या दिन से धरती धरी, राम भजे फणेश(शेषनाग).
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जग मे चारही राम है तिन राम व्यवहार,
चोथा राम ही सार है ताका करो विचार.
राम नाम सत पंथ है, चौथे पद कु जाय,
और पंथ तिहु लोक मे, फिर फिर गोता खाय.
कबीर राम, कृष्ण अवतार है इनका नही है संसार.
जिन साहेब(परमात्मा) संसार किया किन्हू न जन्मेया नार.
अर्थात वो साहेब(परमात्मा) ऐसा है वो ना कभी किसी स्री के गर्भ मे नही आया है ना आयेगा.